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ज्ञानार्णवः । विनाञ्जनेन तन्त्रेण मन्त्रेण विनयेन च ।
वश्चयन्ति नरं नार्यः प्रज्ञाधनमपि क्षणात् ॥ ३२ ॥ अर्थ-स्त्रियोंमें कोई ऐसीही मोहिनी विद्या है कि विना मन्त्र तंत्र अञ्जनके अथवा विना प्रार्थनाकेभी क्षणमात्रमें पंडित पुरुषकोभी ठगलेती हैं । अर्थात् अपने प्रेममें फँसा लेती हैं ॥ ३२ ॥
कुलजातिगुणभ्रष्टं निकृष्टं दुष्टचेष्टितम् ।।
अस्पृश्यमधर्म प्रायो मन्ये स्त्रीणां प्रियं नरम् ॥ ३३ ॥ अर्थ-मैं ऐसा मानता कि कुल-जाति-गुणसे भ्रष्ट, निकृष्ट, दुश्चरित्र, अस्पृश्य और नीच पुरुषही स्त्रियोंको प्रिय होता है । क्योंकि प्रायः ऐसाही देखनेमें आता है कि स्त्रिये उत्तम पुरुषको छोड़ नीचसेही प्रीति कर लेती हैं ॥ ३३ ॥
वैरिवारणदन्ताग्रे समारुह्य स्थिरीकृता।
वीरश्रीमहासत्वैर्योषिद्भिस्तेऽपि खण्डिताः ॥ ३४॥ अर्थ-जिन महापराक्रमी वीर पुरुषोंने युद्धमें शत्रुके हस्तीके दातोंपर चढकर वीरश्रीको . दृढ किया है, अर्थात् विजय प्राप्त किया है, ऐसे शूरवीर योद्धाभी स्त्रियोंके द्वारा सण्डित (भूपतित) होजातें हैं. अर्थात् स्त्रीके सामने किसीकाभी पराक्रम नहीं चलता ॥ ३४ ॥
गौरवेषु प्रतिष्ठासु गुणेष्वाराध्यकोटिषु ।
धृता अपि निमजन्ति दोषपङ्के खयं स्त्रियः ॥ ३५ ॥ अर्थ-गौरव, प्रतिष्ठा और आराधना करनेयोग्य गुणोंसे भूषित कर रक्खी हुईभी स्त्रिये अपने दुश्चरित्ररूपी कीचड़मे फँस जाती हैं। अर्थात् स्त्रियें किसीकेभी वशमें नहीं रहती किंतु खच्छन्द वर्तने लग जाती हैं ॥ ३५॥
दोषान्गुणेषु पश्यन्ति प्रिये कुर्वन्ति विप्रियम् । _ सन्मानिताः प्रकुप्यन्ति निसर्गकुटिलाः स्त्रियः॥३६॥
अर्थ-कुटिल स्त्रियोंका स्वभाव ऐसा है कि-चे गुणोंमें तो दोष देखती हैं . और जो प्यार करे उसमें अप्रियताका आचरण करती हैं और सन्मान करनेसे कुपितं होती हैं ।। ३६ ॥
कृत्वाऽपकार्यलक्षाणि प्रत्यक्षमपि योषितः । । छादयन्त्येव निःशङ्का विश्ववचनपण्डिताः ॥ ३७॥ अर्थ-ये स्त्रियां लाखों बुरे कार्य प्रत्यक्षमें करकेभी निःशंक होकर उन्हें छिपालेती हैं। क्योंकि ये स्त्रियें जगतको ठगनेके लिये अतिशय चतुर हैं । इनकी मायाचातुरीका कोई भी पार नहीं पासकता ॥ ३५ ॥