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रायचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम्
अर्थ – यह स्त्री दुःखोंकी तो अगाध खानि है, जिसमेंसे कि दुःखही दुःख निकलते रहते हैं और कलह तथा भयकी जड़ है, पापका बीज और चिन्ताओंका कंद (मूल) है तथा नरककी पृथिवी है ॥ ४९ ॥
यदि मूर्त्ताः प्रजायन्ते स्त्रीणां दोषाः कथंचन । पूरयेयुस्तदा नूनं निःशेषं भुवनोदरम् ॥ ५० ॥
अर्थ – आचार्य महाराज उत्प्रेक्षासे कहते हैं कि - स्त्रियोंके दोष यदि किसि प्रकारसे मूर्तिमान् होजायँ तो मैं समझता हूं कि उन दोषोंसे निश्चय करके समस्त त्रिलोकी परिपूर्ण भरजायगी ॥ ५० ॥
कौतुकेन समाहर्तुं विश्ववर्त्यङ्गिसंचयम् । वेधसेयं कृता मन्ये नारी व्यसनवागुरा ॥ ५१ ॥
अर्थ – आचार्य महाराज उत्प्रेक्षा से कहते हैं कि - ब्रह्माने जो स्त्री बनाई है सो मानों उसने कौतूहलसे जगत के समस्त जीवोंका संद्ध करनेके वास्ते आकर्षण करनेके लिये कष्टरूपी फांसीही बनाई है ॥ ५१ ॥ अधीर
एकं दृशा परं भावैर्वाग्भिरन्यं तथेङ्गितैः ।
संज्ञयाऽन्यं रतैश्चान्यं रमयन्त्यङ्गना जनम् ॥ ५२ ॥
अर्थ - स्त्रिये किसी एकको तो दृष्टिसेही प्रसन्न करदेती हैं, किसी दूसरेको भावोंसे - - ही रमाती हैं, और अन्य किसी एकको वचनमात्रसे तृप्त करके किसीको इशारोंसेही प्रसन्न करदेती हैं, और शरीरके किसी संकेत औरहीसे करती हैं और रतिसे किसी औरहीसे रमण करती हैं । इस प्रकार अनेक पुरुषोंके चित्तको प्रसन्न करके अपने वश कर लेती हैं ॥ ५२ ॥
atta समान्य विवेकामललोचनैः ।
त्यक्ताः खमेऽपि निःसङ्गैर्नार्यः श्रीसूरिपुङ्गवैः ॥ ५३ ॥
अर्थ - आचार्य महाराज कहते हैं कि जो धीर वीर और ज्ञान ही है निर्मल नेत्र जिनके आचार्यों में प्रधान है उन्होंने धीरजका अवलंबन करके खममेंभी स्त्रियोंका त्याग कर दिया है. ऐसे महापुरुषही धन्य हैं ॥ ५३ ॥
अब इस कथनको पूर्ण करनेके लिये संकोचते हुए उपदेश करते हैंशार्दूलविक्रीडितम् ।
यद्वक्तुं न बृहस्पतिः शतमखः श्रोतुं नसाक्षात्क्षमः तत्स्त्रीणामगुणत्रजं निगदितुं मन्ये न कोऽपि प्रभुः ।