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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् दानसन्मानसंभोगप्रणतिप्रतिपत्तिभिः। .
अपि सेवापरं नाथं नन्ति नार्योऽतिनिर्दयाः ॥ ३८ ॥ . अर्थ-ये स्त्रियें ऐसी निर्दय होती हैं कि दान, सन्मान, संभोग, नमस्कार करने, आदर करने आदि खुशामतके कार्योंसे सेवा करनेमें तत्पर ऐसे पतिको भी मारडालती हैं ॥ ३८॥
विषमध्ये सुधास्यन्दं सस्यजातं शिलोचये।
संभाव्यं न तु संभाव्य चेतः स्त्रीणामकश्मलम् ॥ ३९॥ अर्थ-आचार्य महाराज कहते हैं कि विषमें कदाचित् अमृतका झरना अथवा पर्वतपर (शिलाओंके समूहपर) धान्यका उत्पन्न होना संभव है, परन्तु स्त्रियोंका चित्त निष्पाप कदापि न समझना । अर्थात् ये स्त्रियें निप्पाप (उज्वल) कभी नहीं होतीं ॥ ३९॥
वन्ध्याङ्गजस्य राज्यश्री पुष्पश्रीगंगनस्य च ।
स्थाहैवान्न तु नारीणां मनाशुद्धिर्मनागपि ॥ ४०॥ अर्थ-दैवात् वन्ध्यापुत्रकी राज्यलक्ष्मी और आकाशमें पुष्पोंकी शोभा होना संभव है; परन्तु स्त्रियोंके मनकी शुद्धि किंचिन्मात्रभी नहीं होती ॥ ४० ॥
कुलद्वयमहाकक्षं भस्मसात्कुरुते क्षणात् ।
दुश्चरित्रसमीरालीप्रदीसो वनितानलः॥४१॥ " अर्थ-दुश्चरित्ररूपी पवनसे प्रदीप्त हुई वनितारूपी अमि क्षणमात्रमें अपने उभयकुलरूपी वनको भरस करदेती है ॥ ४१ ॥
सुराचल इवाकम्पा अगाधा वार्डिवमृशम् ।
नीयन्तेऽत्र नराः स्त्रीभिरवधूति क्षणान्तरे ॥४२॥ . अर्थ-जो पुरुष सुमेरु पर्वतके समान अचर (अकंप ) हैं तथा समुद्रके समान अगाध अर्थात् गंभीरप्रकृति हैं वेभी इस जगतमें स्त्रियों के द्वारा क्षणमात्रमें चलायमान वा तिरस्कृत किये जाते हैं तो अन्य सामान्य पुरुषोंकी तो कथाही क्या ? ॥ ४२ ॥
वित्तहीनो जरी रोगी दुर्वल स्थानविच्युतः।
कुलीनाभिरपि स्त्रीभिः सद्यो भर्ता विमुच्यते ॥ ४३ ॥ . अर्थ-स्त्रियोंका पति यदि धनरहित (दरिद्री) हो, बृद्ध हो, रोगी अथवा निर्बल हो तथा. स्थानभ्रष्ट हो तो भले कुलकी स्त्रियेमी अपने भरतारको शीघ्रही छोड़ देती हैं और किसी अन्यसे रमण करने लग जाती हैं ॥ ४३ ॥