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ज्ञानार्णवः । आलोक्य स्खमनीषया कतिपयैवणैर्यदुक्तं मया
तच्छ्रुत्वा गुणिनस्त्यजन्तु वनितासंभोगपापग्रहं ॥ ५४॥ अर्थ-आचार्य महाराज उपदेश करते हैं कि स्त्रियोंके दोषसमूहको कहनेके लिये तो वृहस्पति समर्थ नहीं, और सुननेके लिये इंद्र समर्थ नहीं, इस कारण मैं ऐसा मानता हूं कि और कोईभी स्त्रियोंके दोषोंका वर्णन नहीं करसकता । तिसपरभी मैंने स्त्रियोंके अवगुण देखकर कितनेही अक्षरों में जो कहे हैं सो इनको सुनकर जो गुणी पुरुष हैं वे वनिताके संमोगरूपी पापके आग्रहको छोड़ो, यह हमारा उपदेश है ।। ५४ ।।
मालिनी। परिभवफलवल्ली दुखदावानलालीम्
विषयजलधिवेलां श्वभ्रसौधमतोलीम् । मदनभुजगदंष्ट्रां मोहतन्द्रासवित्रीस्
__परिहर परिणामैधैर्यमालम्व्य नारौं ॥५५॥ अर्थ-हे आत्मन् ! तू धैर्यके अवलम्बनपूर्वक चित्तसे स्त्रीका प्रसंग छोड़ । क्योंकि यह स्त्री अपमानरूपी फलको उत्पन्न करनेके लिये तो बेल (लता) है और दुःखरूपी दावाग्निकी पंक्ति है तथा विषयरूपी समुद्रकी लहर और नरकरूपी महलमें प्रवेश करनेके लिये प्रतोली है अर्थात् प्रवेशद्वार वा घर है तथा कामरूपी सर्पकी दाढ और मोह वा तंद्रा (आलस्य )की माता है ॥ ५५ ॥ ___ इस प्रकार दोषोंके आश्रय स्त्रीका निषेध किया. अब यह कहते हैं कि, समस्त स्त्रियें दोषयुक्तही हैं ऐसा एकान्त नहीं है। किन्तु जिनमें शीलसंयमादि गुण होते हैं वे प्रशंसा फरनेयोग्यमी हैं
यमिभिर्जन्मनिविण्णैर्दूषिता यद्यपि स्त्रियः ।
तथाप्येकान्ततस्तासां विद्यते नाघसंभवः ॥५६॥ अर्थ-यद्यपि संसारसे विरक्त हुए संयमी मुनियोंने स्त्रियोंको दूषितही किया है अर्थात् दोषयुक्तही वर्णन किया है. तथापि उनमें एकान्ततासे पापकाही संभव नहीं है किंतु उनमेंसे किसी २ स्त्रीमें गुणभी होते हैं. सोही कहते हैं ।। ५६ ।।
ननु सन्ति जीवलोके काश्विच्छमशीलसंयमोपेताः।
निजवंशतिलकभूताः श्रुतसत्यसमन्विता नार्यः ॥ ५७॥ अर्थ-अहो ! इस जगतमें अनेक स्त्रियां ऐसीभी हैं कि जो शमभाव (मंदकपायरूप परिणाम) और शीलसंयमसे भूषित हैं . तथा अपने वंशमें तिलकभूत हैं अर्थात्