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ज्ञानार्णवः ।
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सर्पसे काटे हुए अचेत पुरुष अतिशय आसक्त हो जैसे कुत्ते कुतियाके अंगोंको चाटते हैं उसी प्रकार चाटते हैं । हा! इन निर्लज्जोंको ग्लानिभी नहीं आती ॥ ११ ॥ ग्लानिर्मूर्च्छा भ्रमः कम्पः श्रमः खेदोऽङ्गविक्रिया । क्षयरोगादयो दोषा मैथुनोत्थाः शरीरिणाम् ॥ १२ ॥
अर्थ – जीवोंके यद्यपि ग्लानि, क्षीणता, मूर्च्छा, अचेतनता, भ्रम, कंपन, खेद, वेद ( पसेव), अंगविकार और क्षयरोग इत्यादि दोष मैथुनसेही उपनते हैं तौभी यह प्राणी मूर्खताको सेवता ही है ॥ १२ ॥
अनेकदुःखसन्तान निदानं विद्धि मैथुनम् ।
कथं तदपि सेवन्ते हन्त रागान्धबुद्धयः ॥ १३ ॥
अर्थ - हे आत्मन् ! इस मैथुनकर्मको अनेक दुःखका कारण जान । आचार्य महाराज खेदपूर्वक कहते हैं, - प्रत्यक्ष दुःखदायक जानकर भी रागान्ध पुरुष इसका सेवन करते हैं, सो बड़ा खेद है ॥ १३ ॥
कुष्टव्रणमिवाजत्रं वाति स्रवति पूतिकम् ।
यत्स्त्रीणां जघनद्वारं रतये तद्धि रागिणाम् ॥ १४ ॥
अर्थ — स्त्रियोंका जघनद्वार जो कुष्ठके ( कोढ़के ) घावके समान निरन्तर झरता है तथा दुर्गन्धसे वासता है वहभी रागी पुरुषोंकी रति (प्रीति) के लिये है, यह आश्चर्य है ॥ १४ ॥
काकः कृमिकुलाकीर्णे करके कुरुते रतिं ।
यथा aaaaaisi कामी स्त्रीगुह्यमन्धने ॥ १५ ॥
अर्थ – जैसे काक कीड़ोंके समूहसे भरे हाड़ वा फलविशेषमें रति (प्रीति ) करता है उसी प्रकार यह पामर प्राणीभी स्त्रीके गुह्यस्थानके मंथन करनेमें प्रीति करता है ॥ १५ ॥
आर्या ।
वक्तुमपि लज्जनीये दुर्गन्धे सूत्रशोणितद्वारे ।
जघनविले वनितानां रमते बालो न तत्त्वज्ञः ॥ १६ ॥ अर्थ-स्त्रियोंके योनिछिद्रका नाम लेतेही लज्जा आती है, फिर दुर्गन्धमय और मूत्र तथा रुधिरके झरनेका द्वार है । ऐसेमें अज्ञानी ही रमता है. तत्त्वज्ञानी तो कभी नहीं रमता ॥ १६ ॥
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वंशस्थः ।
स्वतालुरक्तं किल कुकुराधमैः प्रपीयते यददिहास्थिचर्वणात् । तथा विटैर्विद्धि वपुर्विडम्बनैर्निषेव्यते मैथुनसंभवं सुखम् ॥१७॥