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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम्
जलधेर्यानपात्राणि ग्रहाद्या गगनस्य च ।
यान्ति पारं न तु स्त्रीणां दुश्चरित्रस्य केचन ।। २६ ॥
अर्थ - यद्यपि समुद्र और आकाश अपार है तथापि जहाजपर बैठनेवाले समुद्र के और ग्रहादिक आकाशके अन्तकों पासकते हैं परन्तु स्त्रियोंके दुश्चरित्रका पार कोईभी नहीं पासकता ॥ २६ ॥
आरोपयन्ति संदेहलायामतिनिर्दयाः ।
नार्यः पतिं च पुत्रं च पितरं च क्षणादपि ॥ २७ ॥
अर्थ - स्त्रिये ऐसी निर्दय हैं कि क्षणमात्रमें अपने पति पुत्र पितादिको संदेहकी तुलापुर चढ़ादेती हैं । भावार्थ - स्त्रिये जो दुश्चरित्र करें और पति पितादिकको ज्ञात होजाय तो तत्काल ऐसी चेष्टा करती हैं कि जिससे उनको ऐसा संदेह होजाता है कि इसने यह दुश्चरित्र नहीं किया होगा; मुझे व्यर्थही भ्रम होगया है ॥ २७ ॥
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गृह्णन्ति विपिने व्याघ्रं शकुन्तं गगने स्थितम् । सरिद्रद्गतं मीनं न स्त्रीणां चपलं मनः ॥ २८ ॥
अर्थ - कई पुरुष बनमें से व्याघ्रको पकड़ते हैं; आकाशगामी पक्षीको पकड़ते हैं तथा 'नदी वा तड़ागमेंसे मछलीको पकड़ते हैं; परन्तु स्त्रियोंके मनको कोईभी पकड़ नहीं सकता अर्थात् वशीभूत नहीं करसकता ॥ २८ ॥
न तदस्ति जगत्यस्मिन् मणिमन्त्रौषधाञ्जनम् । विद्याश्च येन सद्भावं प्रयास्यन्तीह योषितः ॥ २९ ॥
अर्थ - इस जगतमें ऐसा कोईभी मणि, मन्त्र, औषध, अंजन अथवा विद्या नहीं है कि जिससे स्त्रियें सद्भावको प्राप्त हों अर्थात् कुटिलतारहित होजाँय ॥ २९ ॥
मनोभवसमं शूरं कुलीनं भुवनेश्वरम् ।
हत्वा पतिं स्त्रियः सद्यो रमन्ते चेटिकासुतैः ॥ ३० ॥
अर्थ - स्त्रिये ऐसी दुष्ट हैं कि अपना पति कामदेवकी समान सुंदर शूरवीर, कुलीन और राजा ही क्यों न हो तोभी उसे मारकर तत्काल दासीके पुत्रसे रमने लग जाती हैं ॥ ३० ॥
स्मरोत्सङ्गमपि प्राप्य वाञ्छन्ति पुरुषान्तरम् । नार्यः सर्वाः खभावेन वदन्तीत्यनलाशयाः ॥ ३१ ॥ अर्थ – निर्मलाशय विद्वज्जन ऐसा कहते हैं कि सबही स्त्रियें कामदेवसरीखे पतिको पाकरमी स्वभावसे अन्य पुरुषकी वांछा करती हैं ॥ ३१ ॥