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ज्ञानार्णवः । यमजिह्वानलज्वालावविशुद्विषाङ्कुरान् ।
समाहृत्य कृता मन्ये वेधसेयं विलासिनी ॥२०॥ अर्थ-आचार्य महाराज उत्प्रेक्षा करते हैं कि मैं ऐसा मानताहूं कि-विधाताने यमराजकी जीभ, अमिकी ज्वाला, विजली तथा विप इनके अंकुर (सार भाग) इन सबको संग्रह करके यह विलासिनी (स्त्री) बनाई है. क्योंकि इससे कोईभी नहीं बचता ॥ २० ॥
मनस्यन्यवचस्यन्यपुष्यन्यद्विचेष्टितम् ।।
यासां प्रकृतिदोषेण प्रेम तासां कियत्स्थिरम् ॥ २१॥ . अर्थ-जिन स्त्रियोंके खभावसेही मनमें तो कुछ, वचनमें कुछ और शरीरसे कुछ और ही चेष्टा है उनका प्रेम कबतक स्थिर रह सकता है ? अर्थात् बहुत समयतक नहीं ठहरता ॥ २१ ॥
अप्युत्तुङ्गाः पतिष्यन्ति नरा नार्यसंगताः।
यथावामिति लोकस्य स्तनाभ्यां प्रकटीकृतम् ॥ २२॥ अर्थ-स्त्रियोंके दोनों स्तन प्रकट करते हैं अर्थात् परस्पर कहते हैं कि देखो, भाई! स्त्रीके अंगसंगसे जिसप्रकार हमारा अधःपतन हुआ है इसी प्रकार जगतके बड़े २ पुरुष स्त्रीके अंगसंगसे नीचे गिरेंगे । अर्थात् नीची अवस्थाको प्राप्त होंगे ।। २२ ॥ .
यदीन्दुस्तीव्रतां धत्ते चण्डरोचिश्व शीतताम् ।।
दैवात्तथापि नो धत्ते नरि नारी स्थिरं मनः ॥२३॥ अर्थ-कदाचित् दैवयोगसे चन्द्रमा उष्णखभावी और सूर्य शीतल भलेही होजाय परन्तु स्त्रीका मन किसी एक पुरुषमें स्थिर नहीं होसकता । अर्थात् उसे अन्य २ पुरुषकी कामना बनीही रहती है ॥ २३ ॥
देवदैत्योरगव्यालग्रहचन्द्रार्कचेष्टितम् । .
विदन्ति ये महाप्राज्ञास्तेऽपि वृत्तं न योषिताम् ॥ २४ ॥ अर्थ-जो महाविद्वान् देव, दैत्य, नाग, हस्ती, ग्रह, चन्द्रमा और सूर्य इन सबकी चेष्टाओंको जानते हैं, वे भी स्त्रियोंके चरित्रको नहीं जान सकते । क्योंकि स्त्रीचरित्र अगाध है. यह जगत्प्रसिद्ध उक्ति है ॥ २४ ॥
सुखदुःखजयपराजयजीवितमरणानि ये विजानन्ति ।
मुह्यन्ति तेऽपि नूनं तत्त्वविदश्चेष्टिते स्त्रीणाम् ॥ २५ ॥ अर्थ-जो तत्त्वज्ञानी सुख-दुःख, जय पराजय और जीवित मरण आदिकको निमितज्ञानके बलसे जानते हैं, वेभी स्त्रियोंकी चेष्टा जाननेमें मोहको प्राप्त होते हैं । अर्थात् । स्त्रियोंके चरित्र जाननेके लिये अज्ञानमूढ होजाते हैं ॥ २५ ॥