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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् न दानं न च सौजन्यं न प्रतिष्ठां न गौरवम् ।
न च पश्यन्ति कामान्धा योषितः खान्ययोहितम् ॥ १४ ॥ अर्थ-कामान्ध स्त्रियां न तो दान सुजनताको देखतीं हैं, न अपने गौरव' और प्रतिष्ठाका विचार करती हैं और न अपना वा पराया हितही देखती हैं, किन्तु जो चित्तमें आया सो विना विचारेही कर बैठतीं हैं ॥ १४ ॥
न तत् क्रुद्धा हरिव्याघ्रव्यालानलनरेश्वराः।
कुर्वन्ति यत्करोत्येका नरि नारी निरङ्कुशा ॥ १५ ॥ अर्थ-एक निरंकुश स्त्री ही नरके ( मनुष्यके ) लिये वह काम करती है कि जिसको क्रोधित हुए सिंह, व्याघ्र, सर्प, अमि और राजाभी नहिं करसकते । भावार्थ-पुरुषोंको खतंत्र स्त्री जैसा कष्ट देती है वैसा कोईभी नहिं दे सकता ॥ १५॥
यामासाद्य त्वया कान्तां सोढव्या नारकी व्यथा ।
तस्या वातापि न श्लाघ्या कथमालिङ्गनादिकम् ॥ १६ ॥ अर्थ-आचार्य महाराज समझाते हैं कि हे आत्मन् ! जिस स्त्रीकी संगतिसे तझे नरकके दुःख सहने पडें ऐसी स्त्रीकी चर्चा करनाभी तेरे लिये प्रशंसनीय नहीं है, तो उससे आलिंगनादि करना कैसे प्रशंसनीय हो सकता है ? ॥ १६ ॥
स कोऽपि स्मयतां देवो मन्त्रो वाऽऽलम्ब्य साहसम् ।
यतोऽङ्गानापिशाचीयं ग्रसितुं नोपसपैति ।। १७॥ अर्थ-आचार्य महाराज उपदेश करते हैं कि हे आत्मन् ! तू ऐसे किसी देव वा मंत्रको स्मरण कर अथवा ऐसा कोई साहस कर जिससे यह स्त्रीरूपी पिशाचिनी तुझे भक्षण करनेको निकट न आवै ॥ १७ ॥
एकैच वनिताव्याली दुर्विचिन्त्यपराक्रमा। __ लीलयैव यया मूढ खण्डितं जगतां त्रयम् ॥ १८॥ अर्थ-हे मूढ ! आत्मन्! यह स्त्री रूपी सर्पिणी ऐसी है कि जिसका पराक्रम अचिन्त्य है अर्थात् चिन्तवनमें नहिं आसकता । क्योंकि लीलामात्रसे जिस अकेलीनेही इन तीनों भुवनोंको खण्डित करदिया है, सो तू देख ॥ १८ ॥
न तदृष्टं श्रुतं ज्ञातं न तच्छास्त्रेषु चर्चितम् ।
यत्कुर्वन्ति महापापं स्त्रियः कामकलङ्किताः ॥ १९॥ अर्थ-वे स्त्रियें कामसे कलंकित हो ऐसाही कोई महापाप कर बैठती हैं कि जिसको न तो किसीने देखा, न सुना तथा न शास्त्रोंमेंही जिसकी चर्चा आई ॥ १९ ॥