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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् जिनका बोल तो अमृतके समान मीठा है, और हृदयमें जहर भरा हुआ है। इस प्रकार क्रूर खभाववाली स्त्रियोंको किसने बनाया ? यह हम नहिं जान सकते ॥ २ ॥
वज्रज्वलनलेखेव भोगिदंष्ट्रेव केवलम् ।
वनितेयं मनुष्याणां संतापभयदायिनी ॥ ३ ॥ अर्थ-यह स्त्री मनुष्योंको वज्रामिकि ज्वालाके समान और सांपकी डाढ़के समान भय तथा संताप देनेवाली है । भावार्थ-जैसे वज्रपातजनित अग्निज्वाला और सापकी डाढ़ मनुष्योंको कष्ट और भय उपजानेवाली है, वैसेही यह स्त्रीभी है । इसमें कुछभी संदेह नहिं है ॥ ३॥
उदासयति निश्शङ्का जगत्पूज्यं गुणव्रजम् ।
बनती वसतिं चित्ते सतामपि नितम्बिनी ॥ ४ ॥ अर्थ-शंकारहित मनमें स्थान (अड्डा ) जमाती हुई स्त्री सज्जनोंके भी जगतमें पूजनेयोग्य गुणसमूहको दूर भगादेती है । भावार्थ-साधारण मनुष्योंकी क्या कथा ? किंतु यदि वेडर स्त्रीने मनमें डेरा कर लिया तो सत्पुरुषोंके भी विश्ववन्ध गुणोंको दूर हटा देती है । अर्थात् मनसे स्त्रीका ध्यानमात्र करनेसेही वंदनीय पुरुष भी निंदनीय हो जाते हैं ॥ ४ ॥
वरमालिङ्गिता क्रुद्धा चलल्लोलाऽत्र सर्पिणी।
न पुनः कौतुकेनापि नारी नरकपद्धतिः ॥५॥ अर्थ-क्रोधसे फुकार मारती चलती हुई सर्पिणीका आलिंगन करना श्रेष्ठ है किन्तु स्त्रीको कौतुकमात्रसे भी आलिंगन करना श्रेष्ठ नहिं । क्योंकि सर्पिणी यदि दंशन करै (काटै) तो एकबारही मरना होता है; और स्त्री तो नरककी पद्धतिखरूप है अर्थात् यह बारबार भरण कराकर नरकमें लेजानेवाली है ॥ ५॥
हृदि दत्ते तथा दाहं न स्पृष्टा हुतभुकशिखा।
वनितेयं यथा पुंसामिन्द्रियार्थप्रकोपिनी ॥६॥ अर्थ-यह वी इन्द्रियोंके कोपको बढ़ानेवाली है, सो स्पर्श कीहुई ऐसा दाह उत्पन्न करती है कि जैसा स्पर्श कीहुई अग्निकी शिखा भी नहीं करती ॥ ६॥
सन्ध्येव क्षणरागाच्या निनगेवाधरप्रिया। . __वक्रा बालेन्दुलेखेव भवन्ति नियतं स्त्रियः ॥७॥ अर्थ-ये स्त्रिये सन्ध्याकी समान क्षणभर रागसहित रहनेवाली (क्षणभर प्रीति रखनेवाली) हैं और नदीकी समान अधरप्रिया हैं अर्थात् जैसे नदी नीची भूमिकी तरफ जाती है उसी प्रकार स्त्रियें भी प्रायः नीच पुरुपसे रभण करनेवाली होती हैं । तथा द्वितीयाके