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ज्ञानार्णवः ।
आर्या ।
हरिहरपितामहाद्या वलिनोऽपि तथा स्मरेण विध्वस्ताः । त्यक्तनपा यथैते खाङ्कान्नारीं न मुञ्चन्ति ॥ ४६ ॥
अर्थ - जैसे ये निर्लज्ज जन अपनी गोद में स्थित स्त्रीको नहिं छोड़ते वैसेही हरि, हर, और ब्रह्मादिक वलिष्ठों को भी कामने नष्ट करदिया है अर्थात् वे भी स्त्रीको गोदसे कभी बाहर नहिं करते ॥ ४६ ॥
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यदि प्रासं त्वया मूढ त्वं जन्मोग्रक्रमान् । तदा तत्कुरु येनेयं स्मरज्वाला विलीयते ॥ ४७ ॥
अर्थ - हे मूढ प्राणी! जो तूने संसारमें भ्रमण करते २ इस मनुष्यभवको पाया है तो तू वह काम कर जिसके कि तेरी कामरूपी ज्वाला नष्ट हो जाय ॥ ४७ ॥ अब इस प्रकरणको पूर्ण करते हुए अहते हैं,
मालिनी ।
स्मरदहनसुतीवानन्तसन्तापविद्ध
भुवनमिति समस्तं वीक्ष्य योगिप्रवीराः । विगतविषयङ्गाः प्रत्यहं संश्रयन्ते
प्रशमजलधितीरं संयमारामरम्यम् ॥ ४८ ॥
अर्थ - विषयसंगरहित योगिप्रवीर ( श्रेष्ठ योगीजन ) इस संसारको कामानिके प्रचण्ड और अनंत संतापोंसे पीडित देखकर प्रतिदिन संयमरूप वगीचेसे शोभायमान ऐसे शान्तिसागरके तटका आश्रय लेते हैं ॥ ४८ ॥
इति श्रीज्ञानार्णवे योगप्रदीपाधिकारे शुभचन्द्राचार्यविरचिते कामप्रकोपप्रकरणम् ॥११॥
अथ द्वादशं प्रकरणम् ।
कुर्वन्ति यन्मदोद्रेकदर्पिता भुवि योषितः । शतांशमपि तस्येह न वक्तं कश्चिदीश्वरः
॥
अर्थ - इस पृथ्वीतलमें मदके आधिक्यसे गर्वित स्त्रियां जो कर डालती हैं, उसका शतांश कहनेके लिये भी कोई समर्थ नहिं है ॥ १ ॥
धारयन्त्यमृतं वाचि हृदि हालाहलं विषम् ।
निसर्गकुटिला नार्यो न विद्मः केन निर्मिताः ॥ २ ॥
अर्थ- जो वाणी में तो अमृतको धारण करती हैं और हृदयमें विष भरेहुए हैं, इस प्रकार खभावसेही कुटिल इन स्त्रियोंको किसने बनाया हैं यह हम नहिं जानते । भावार्थ