________________
ज्ञानार्णवः । उल्लंघन कर संभोगके लिये चांडालकी स्त्रीका दासत्व खीकार करलेते हैं। भावार्थकामके वशीभूत होकर बड़े २ वुद्धिमान् चांडालकी स्त्रियोंतकके दास हो जाते हैं. और वे जो जो नाच नचाती हैं वे सवही उनको नाचने पड़ते हैं ॥ ३४ ॥
प्रवृद्धमपि चारिनं ध्वंसयत्याशु देहिनाम् ।।
निरुणाद्धि श्रुतं सत्यं धैर्य च मदनव्यथा ॥ ३५ ॥ अर्थ-मदनकी व्यथा जब उठती है तब जीवोंके वहुत दिनसे बड़ाये तथा पालेहुए चारित्रको ध्वंस करदेती है । एवम् शास्त्राध्ययन, धैर्य और सत्यभाषणादिकोभी बंदकर देती है। भावार्थ-जव कामकी पीड़ा व्यापती है तव चारित्र बिगड़ जाता है। शास्त्र पढ़ना, सत्य बोलना और धैर्य रखना आदि सबही भूल जाते हैं ॥ ३५॥
नासने शयने याने खजने भोजने स्थितिम् ।
क्षणमात्रमपि प्राणी प्राप्नोति स्मरशल्यतः ॥ ३६ ।। ___ अर्थ-जिसको कामरूपी काटा चुभता रहता है वह प्राणी वैठने, सोने, चलने, भोजन करने तथा खजनोंमें क्षणभरभी स्थिरताको प्राप्त नहिं होता । अर्थात् सर्वत्र डामाडोल रहता है ॥ ३६॥
वित्तवृत्तवलस्यान्तं स्वकुलस्य च लाञ्छनम् ।
मरणं वा समीपस्थं न स्मरातः प्रपश्यति ॥ ३७ ।। अर्थ-कामपीडित पुरुप अपने धन, चारित्र और बलके नाश होनेको तथा अपने कुलपर कलंक लगनेको, वा मरणभी निकट आजाय तो उसकोभी नहिं देखता है । अर्थात् उसके चित्तमें हिताहितका कुछ भी विचार नहिं रहता ॥ ३७ ॥
न पिशाचोरगा रोगा न दैत्यग्रहराक्षसाः।
पीडयन्ति तथा लोकं यथाऽयं मदनज्वरः ॥ ३८॥ अर्थ-जैसा कष्ट यह कामज्वर जगतको देता है ऐसा पिशाच, सर्प, रोग, आदि नहिं देते और न दैत्य-ग्रह-राक्षसादिकही देते हैं । भावार्थ-कामकी पीडा सबसे अधिक है ॥ ३८ ॥
अनासाद्य जनः कामी कामिनी हृदयप्रियाम् ।
विषशस्त्रानलोपायैः सद्यः खं हन्तुमिच्छति ॥ ३९ ॥ अर्थ-कामी पुरुप यदि अपनी मनकी प्यारी कामिनीको नहिं प्राप्त होता है तो विष, शस्त्र, अग्नि आदिसे त्वरितही अपना अपघात करनेको तैयार हो जाता है। भावार्थ-जिस- स्त्रीसे कामीका मन आकर्षित होता है वह प्राप्त नहिं होती तो फिर अपना मरेंना विचार लेता है ॥ ३९ ॥ .