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ज्ञानार्णवः
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अर्थ - फिर भी कहते हैं कि मैं इस जीवोंके समूहको कामरूपी अग्निसे जलता हुआ मानता हूं । क्योंकि यह प्राणिसमूह स्त्रीके शरीररूपी कीचड़ में प्रवेश करके डूबता है । भावार्थ - कामी पुरुष कामरूप अनिके तापसे संतप्त हो स्त्रीके शरीररूपी कीचड़ में प्रवेश करके शीतल होना चाहता है ॥ २२ ॥
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अनन्तव्यसनासारदुर्गे भवमरुस्थले ।
स्मरज्वरपिपासात विपद्यन्ते शरीरिणः ॥ २३ ॥
अर्थ- संसारी जीव कामज्वरके दाहसे उत्पन्न हुई तृषासे पीड़ित होकर अनन्त कष्टोंका समूहस्ररूप दुर्गम संसाररूपी मरुस्थल में दुःख सहन करते हैं ॥ २३ ॥ घृणास्पदमतिक्रूरं पापाख्यं योगिदूषितम् । जनोऽयं कुरुते कर्म स्मरशार्दूल चर्चितः ॥ २४ ॥
अर्थ- कामरूपी सिंहसे चर्वित हुआ यह मनुष्य योगियोंसे निन्दित, पापसे भरे, अतिशय क्रूरतारूप तथा घृणास्पद कार्यको भी करता है ॥ २४ ॥ दिग्मूढमथ विभ्रान्तमुन्मत्तं शङ्किताशयम् । विलक्ष्यं कुरुते लोकं स्मरवैरीविजृम्भितः ॥ २५ ॥
अर्थ - प्रकोपको प्राप्तहुआ यह कामरूपी वैरी लोगोंको दिशामूढ़ अथवा विभ्रमरूप करता है । तथा उन्मत्त और भयभीत करता है । एवम् विलक्ष्य कहिये लक्ष्य भ्रष्ट (इष्टकार्य से विमुख ) करता है । भावार्थ- जब कामोद्दीपन होता है तब समस्त समीचीन का - यौंको भूलकर एकमात्र उसकाही चितवन- स्मरणका ध्यान रहता है ॥ २५ ॥
न हि क्षणमपि स्वस्थं चेतः खमेऽपि जायते । मनोभवशरत्रातैर्भिद्यमानं शरीरिणाम् ॥ २६ ॥
अर्थ — कामके वाणोंके समूहसे भिदता हुआ जीवोंका चित्त क्षणभरके लिये खम भी स्वस्थताको प्राप्त नहिं होता ॥ २६ ॥
जानन्नपि न जानाति पश्यन्नपि न पश्यति ।
लोकः कामानलज्वालाकलापकवलीकृतः ॥ २७ ॥
अर्थ - यह लोक है सो कामरूपी अग्निकी ज्वालाके समूहसे ग्रसाहुआ जानता हुआभी कुछ नहिं जानता और देखता हुआभी कुछ नहिं देखता । इस प्रकार अचेत ( बेखबर ) हो जाता है ॥ २७ ॥
भोगिष्टस्य जायन्ते वेगाः सप्तैव देहिनः ।
स्मरभोगीन्द्रदष्टानां दश स्युस्ते भयानकाः ॥ २८ ॥
अर्थ - सर्पसे काटे हुए प्राणीके तों सातही वेग होते हैं; परन्तु कामरूपी सर्पके डसेहुए जीवोंके दश वेग होते हैं. जो बड़े भयानक हैं ॥ २८ ॥ .
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