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ज्ञानार्णवः । विरज्य कामभोगेषु ये ब्रह्म समुपासते।
एते दश महादोषास्तैस्त्याज्या भावशुद्धये ॥ ११ ॥ अर्थ-जो पुरुप काम और भोगोंमें विरक्त होकर ब्रह्मचर्यका सेवन करते हैं उनको भावशुद्धिके लिये उपर्युक्त दश प्रकारके मैथुन त्याग देने चाहिये । क्योंकि इन दोषोंके त्यागे विना भावोंकी शुद्धि नहिं होती ॥ ११ ॥ अब और भी विशेषतासे कहते हैं,
स्मरप्रकोपसंभूतान्त्रीकृतान्मैथुनोत्थितान् ।
संसर्गप्रभवान्ज्ञात्वा दोषान् स्त्रीषु विरज्यताम् ॥ १२ ॥ अर्थ हे आत्मन् ! कामके प्रकोपसे उत्पन्न हुए दोपों तथा स्त्रीके किये दोषों और मैथुनकृत दोषों तथा संसर्गजन्य दोपोंको जानकर स्त्रियोंसे विरक्त हो ॥ १२ ॥ अब प्रथमही कामका प्रकोप होनेसे जो दोष होते हैं उनका वर्णन करते हैं,
सिक्तोऽप्यम्वुधरवातैः प्लावितोऽप्यम्युराशिभिः ।
न हि त्यजति संतापं कामवह्निप्रदीपितः ॥ १३ ॥ अर्थ-कामरूपी अग्मिका ताप ऐसा होता है कि वह प्रज्वलित होनेपर मेधके समूहोंसे सिंचन होनेपर भी दूर नहिं होता । अथवा कामानिसे प्रज्वलित पुरुषको समुद्रमें डवा रक्खो तो भी सन्ताप दूर नहिं होता ॥ १३ ॥
मूले ज्येष्टस्य मध्याह्ने व्यने नभसि भास्करः।
न प्लोषति तथा लोकं यथा दीपः स्मरानलः ।। १४ ॥ अर्थ-कामरूप अग्नि प्रचलित होकर जिस प्रकार लोकको सन्तापित करती है उस प्रकार जेठमहीनेके मूलनक्षत्रमें बादलरहित आकाशमें प्रकाशमान सूर्यभी नहिं कर सकता ॥ १४ ॥
हृदि ज्वलति कामाग्निः पूर्वमेव शरीरिणाम् ।।
भस्मसात्कुरुते पश्चादङ्गोपाङ्गानि निर्दयः ॥ १५॥ . अर्थ-कामरूपी निर्दय अग्नि प्रथम तो जीवोंके हृदयमें प्रज्वलित होती है, तत्पश्चात् जब वृद्धिको प्राप्त होती है तव शरीरके अंग उपांगोंको भस्म कर देती है । अर्थात् सुखा देती है ॥ १५ ॥
अचिन्त्यकामभोगीन्द्रविषव्यापारमूञ्छितम् ।
वीक्ष्य विश्वं विवेकाय यतन्ते योगिनः परं ॥ १६॥ अर्थ-जो परम योगी हैं वे इस लोकको अचिन्त्य कामरूपी सर्वके विषकी क्रियासे