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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् नाल्पसत्वैन निःशीलैन दीनै क्षनिर्जितः।
खमेऽपि चरितुं शक्यं ब्रह्मचर्यमिदं नरैः ॥५॥ अर्थ-जी अल्पशक्ति पुरुप हैं, शीलरहित हैं, दीन हैं और इन्द्रियोंसे जीते गये हैं वे इस ब्रह्मचर्यको धारण करनेको खममें भी समर्थ नहीं होसकते हैं. अर्थात् वडी शक्तिके धारक पुरुषही ऐसे कठिनव्रतके आचरण करनेके लिये समर्थ होते हैं ॥ ५॥ अब इस ब्रह्मचर्यको धारण करनेवालोंके त्यागने योग्य दश प्रकारके मैथुनको कहते हैं,
पर्यन्तविरसं विद्धि दशधान्यच्च मैथुनम् ।
योषित्संगाद्विरक्तेन त्याज्यमेव मनीपिणा ॥६॥ अर्थ-इस ब्रह्मचर्य व्रतका प्रतिपक्षी मैथुन (कामसेवन ) है । सो दशप्रकारका है। और अन्तमें विरस है, इस कारण जो पुरुष स्त्रीसे विरक्त हैं तथा बुद्धिमान् हैं उनको अवश्यही त्यागना योग्य है ॥ ६ ॥ उन दशप्रकारके मैथुनोंके नाम तीन श्लोकोंसे कहते हैं,
आद्यं शरीरसंस्कारो द्वितीयं वृष्यसेवनम् । तौर्यत्रिकं तृतीयं स्यात्संसर्गस्तूर्यमिष्यते ॥७॥ योषिद्विषयसंकल्पः पञ्चमं परिकीर्तितम् । तदङ्गवीक्षणं षष्ठं संस्कार: सप्तमं मतम् ॥८॥ पूर्वानुभोगसंभोगस्मरणं स्यात्तदष्टमम् ।
नवमं भाविनी चिन्ता दशमं वस्तिमोक्षणम् ॥९॥ ' अर्थ-प्रथम तो शरीरका संस्कार करना (शृंगारादि करना) १, दूसरा-पुष्टरसका सेवन करना २, तीसरा-तौर्यत्रिक कहिये गीतनृत्यवादित्रका देखना सुनना ३, चौथास्त्रीका संसर्ग करना ४, पांचवां-स्त्रीमें किसी प्रकारका संकल्प वा विचार करना ५, छठा-स्त्रीके अंग देखना ६, सातवां-उस देखनेका संस्कार (हृदयमें अंकित ) रहना ७, आठवां-पूर्वमें किये हुए संभोगका सरण करना ८, नवां-आगामी भोगनेकी चिन्ता करनी ९ और दशवां शुक्रका क्षरण १० । इस प्रकार मैथुनके दश भेद हैं. इन्हे ब्रह्मचारीको सर्वथा त्यागना चाहिये ॥ ७ ॥ ८॥९॥ . किम्पाकफलसंभोगसन्निभं तद्धि मैथुनम् ।
आपातमात्ररम्यं स्याद्विपाकेऽत्यन्तभीतिदम् ॥१०॥ अर्थ-जिस प्रकार किंपाकफल (इन्द्रायणका फल) देखने, सूंघने और खानेमें रमणीय (सुखाद) है और विपाक होनेपर हालाहल (विष)का काम करता है उसी प्रकार यह मैथुन भी कुछ कालपर्यन्त रमणीक वा सुखदायक . मालूम होता है। परन्तु विपाकसमयमें ( अन्तमें) बहुतही भयका देनेवाला है ॥ १० ॥