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________________ ज्ञानार्णवः १३७ अर्थ - फिर भी कहते हैं कि मैं इस जीवोंके समूहको कामरूपी अग्निसे जलता हुआ मानता हूं । क्योंकि यह प्राणिसमूह स्त्रीके शरीररूपी कीचड़ में प्रवेश करके डूबता है । भावार्थ - कामी पुरुष कामरूप अनिके तापसे संतप्त हो स्त्रीके शरीररूपी कीचड़ में प्रवेश करके शीतल होना चाहता है ॥ २२ ॥ 1 अनन्तव्यसनासारदुर्गे भवमरुस्थले । स्मरज्वरपिपासात विपद्यन्ते शरीरिणः ॥ २३ ॥ अर्थ- संसारी जीव कामज्वरके दाहसे उत्पन्न हुई तृषासे पीड़ित होकर अनन्त कष्टोंका समूहस्ररूप दुर्गम संसाररूपी मरुस्थल में दुःख सहन करते हैं ॥ २३ ॥ घृणास्पदमतिक्रूरं पापाख्यं योगिदूषितम् । जनोऽयं कुरुते कर्म स्मरशार्दूल चर्चितः ॥ २४ ॥ अर्थ- कामरूपी सिंहसे चर्वित हुआ यह मनुष्य योगियोंसे निन्दित, पापसे भरे, अतिशय क्रूरतारूप तथा घृणास्पद कार्यको भी करता है ॥ २४ ॥ दिग्मूढमथ विभ्रान्तमुन्मत्तं शङ्किताशयम् । विलक्ष्यं कुरुते लोकं स्मरवैरीविजृम्भितः ॥ २५ ॥ अर्थ - प्रकोपको प्राप्तहुआ यह कामरूपी वैरी लोगोंको दिशामूढ़ अथवा विभ्रमरूप करता है । तथा उन्मत्त और भयभीत करता है । एवम् विलक्ष्य कहिये लक्ष्य भ्रष्ट (इष्टकार्य से विमुख ) करता है । भावार्थ- जब कामोद्दीपन होता है तब समस्त समीचीन का - यौंको भूलकर एकमात्र उसकाही चितवन- स्मरणका ध्यान रहता है ॥ २५ ॥ न हि क्षणमपि स्वस्थं चेतः खमेऽपि जायते । मनोभवशरत्रातैर्भिद्यमानं शरीरिणाम् ॥ २६ ॥ अर्थ — कामके वाणोंके समूहसे भिदता हुआ जीवोंका चित्त क्षणभरके लिये खम भी स्वस्थताको प्राप्त नहिं होता ॥ २६ ॥ जानन्नपि न जानाति पश्यन्नपि न पश्यति । लोकः कामानलज्वालाकलापकवलीकृतः ॥ २७ ॥ अर्थ - यह लोक है सो कामरूपी अग्निकी ज्वालाके समूहसे ग्रसाहुआ जानता हुआभी कुछ नहिं जानता और देखता हुआभी कुछ नहिं देखता । इस प्रकार अचेत ( बेखबर ) हो जाता है ॥ २७ ॥ भोगिष्टस्य जायन्ते वेगाः सप्तैव देहिनः । स्मरभोगीन्द्रदष्टानां दश स्युस्ते भयानकाः ॥ २८ ॥ अर्थ - सर्पसे काटे हुए प्राणीके तों सातही वेग होते हैं; परन्तु कामरूपी सर्पके डसेहुए जीवोंके दश वेग होते हैं. जो बड़े भयानक हैं ॥ २८ ॥ . १८.
SR No.010853
Book TitleGyanarnava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1913
Total Pages471
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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