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________________ १३६ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् मूर्छित हुआ देखकरही अपने आत्मखरूपके भेदविज्ञानार्थ यल करते हैं । भावार्थ-इस कामसे योगीश्वरही बचे हैं ॥ १६ ॥ सरव्यालविषोनारैर्वीक्ष्य विश्व कर्थितम् । ___ यमिनः शरणं जग्मुर्विवेकविनतासुतम् ॥ १७॥ अर्थ-कामरूपी सर्पके विषोद्गारसे पीडित समस्त जगतको देखकर संयमी मुनिगण विवेकरूपी गरुडकी शरणमें प्राप्त हुय हैं । भावार्थ-कामसे वचनेका उपाय विवेक अर्थात् भेदज्ञानही है ॥ १७ ॥ एक एव स्मरो वीरः स चैकोऽचिन्त्यविक्रमः । अवज्ञयैव यैनेदं पादपीठीकृतं जगत् ॥१८॥ अर्थ-इस जगतमें वीर एकमात्र कामही है, और वह अद्वितीय है । क्योंकि जिसका अचिन्त्य पराक्रम है, जिसने अवज्ञामात्रसे इस जगतको अपने पार्यातले दवालिया है। अर्थात् वशीभूत कर लिया है । जैसे-कोई किसीको तिरस्कारमात्र कर वश करले उसीप्रकार वश कर लिया है ॥ १८॥ एकाक्यपि नयत्येष जीवलोकं चराचरम् । मनोभूभङ्गमानीय खशक्त्याऽच्याहतक्रमः ॥ १९ ॥ अर्थ-जिसका पराक्रम अव्याहत अर्थात् अखण्डित है ऐसा यह काम अकेलाही इस चराचरखरूप जगतको अपनी शक्तिसे भंगताको प्राप्त किये है । अर्थात् भिन्न २ को अपने मागेमें चलाता है ॥ १९ ॥ पीडयत्येव निःशङ्को मनोभूर्भुवनत्रयम् । प्रतीकारशतेनापि यस्य भङ्गो न भूतले ॥ २० ॥ अर्थ-यह काम निर्भय होकर इस तीन भुवनको पीड़ित (दुःखित ) करता है और इस पृथिवीपर सैकड़ों उपाय करनेपर भी इसका भंग ( नाश ) नहिं होता ॥ २० ॥ __ कालकूटादहं मन्ये स्मरर्सझं महाविषम् । स्यात्पूर्व सप्रतीकारं निःप्रतीकारमुत्तरम् ॥ २१ ॥ अर्थ-आचार्य महाराज कहते हैं कि इस कामस्वरूपी विपको मैं कालकूट ( हलाहल ) विषसे भी महाविष मानता हूं। क्योंकि पहिला जो कालकूट विप है वह तो उपाय करनेसे मिट जाता है। परन्तु दूसरा जो कामरूपी विप है वह उपायरहित है। अर्थात् इलाज करनेसे भी नहीं मिटता है ॥ २१ ॥ जन्तुजातमिदं मन्ये स्मरवह्निप्रदीपितम् ।। मजत्यगाधमध्यास्य पुरन्ध्रीकायकर्दमम् ॥ २२॥
SR No.010853
Book TitleGyanarnava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1913
Total Pages471
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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