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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् है और अन्यमतियोंने जो अहिंसा कही है सो योगमात्रसेही कही है । अर्थात् कहीं अहिंसा कही है और कहीं हिंसाका पोषण किया है, सो खेच्छापूर्वक उन्मत्तकी तरह कही है। भावार्थ-जिनागममें हिंसाका सर्वथा निषेध है किन्तु अन्यमतियोंने पागलके जैसे कहीं तो हिंसाका निषेध किया है और कहीं उसका पोपण किया है ।। ५६ ॥
___ आर्या । .: तन्नास्ति जीवलोके जिनेन्द्रदेवेन्द्रचऋकल्याणम् ।
यत्प्रामुवन्ति मनुजा न जीवरक्षानुरागेण ॥ ५७॥ अर्थ-इस जीवलोकमें (जगतमें) जीवरक्षाके अनुरागसे मनुप्य समस्त कल्याणरूप पदको प्राप्त होते हैं। ऐसा कोई भी तीर्थकर देवेन्द्र चक्रवर्तित्वरूप कल्याणपद लोकमें नहीं है जो दयावान् नहीं पावें । अर्थात् अहिंसा (दया)सर्वोत्तमपदकी देनेवाली है ॥५७॥
यत्किचित्संसारे शरीरिणां दुःखशोकभयवीजम् ।
दौर्भाग्यादि समस्तं तद्धिसासंभवं ज्ञेयम् ॥ ५८ ॥ अर्थ-संसारमें जीवोंके जो कुछ दुःख शोक भयका वीज कर्म है तथा दुर्भाग्यादिक हैं वे समस्त एकमात्र हिंसासे उत्पन्न हुए जानो । भावार्थ-समस्त पापकर्मोंका मूल हिंसाही है ॥ ५८ ॥ अव अहिंसाका प्रकरण पूर्ण करते हुए कहते हैं,
स्रग्धरा । ज्योतिश्चकस्य चन्द्रो हरिरमृतभुजां चण्डरोचिङ्ग्रहाणाम् ।
कल्पाउंपादपानां सलिलनिधिरपां खणशैलो गिरीणाम्। भभ देवश्रीवीतरास्त्रिदशमुनिगणस्यात्र नाथो यथाऽयस्
तबच्छीलव्रतानां शमयमतपसां विद्ध्यहिंसां प्रधानाम् ॥५९॥ अर्थ हे भव्य जीव ! जिस प्रकार ज्योतिश्चक्रोंमें प्रधान खामी चंद्रमा है तथा देवोंमें इन्द्र, ग्रहोंमें सूर्य, वृक्षोंमें कल्पवृक्ष, जलाशयोंमें समुद्र, पर्वतोंमें मेरु, और देवोंमें मुनियोंके नाथ (खामी) श्रीवीतराग देव प्रधान हैं उसी प्रकार शील और व्रतोंमें तथा शमभाव, यम (महाव्रत) और तपोंमें अहिंसाको प्रधान जानो । ऐसे अहिंसा महाव्रतका वर्णन किया गया ॥ ५९॥
___ दोहा। रागादिक निश्चय कही, व्यवहारै परघात ।
हिंसा त्यागें जे जती, मेटें सव उतपात ॥१॥ इति श्रीज्ञानार्णवे योगप्रदीपाधिकारे शुभचन्द्राचार्यविरचिते अहिंसामहाव्रतप्रकरणं ॥८॥