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ज्ञानार्णवः।
१२३ . अर्थ-इस जगतमें व्यवहारमें प्रवर्तनेवाली वाणी ऐसी नहीं है कि जिसमें “समस्त व्यवहारोंको सिद्ध करनेवाली स्याद्वादरूप सत्यार्थ वाणी स्फुरायमान न हो, किन्तु ऐसी स्याद्वादरूप सत्यार्थ वाणीको भी मिथ्यादृष्टी नष्टचित्तपुरुष असत्य कहते हुए समस्त व्यवहारका लोप करते हैं। भावार्थ-मिथ्यादृष्टी (सर्वथा एकान्ती) स्वाद्वादका निषेध करते हैं अतएव वह नष्टाशय हैं। क्योंकि सर्वथा एकान्त असत्य है । उस असत्य वचनसे न तो लोकव्यवहारकी सिद्धि होती और न धर्मव्यवहारहीकी सिद्धि होती है । ऐसे असत्य वचनको कहते हुए मिथ्यादृष्टी समस्त व्यवहारोंका लोप करते हैं ॥ ११ ॥ . पृष्टैरपि न वक्तव्यं न श्रोतव्यं कथंचन। .
वचः शङ्काकुलं पापं दोषाढ्यं चाभिसूयकम् ।। १२॥ अर्थ-जो वचन सन्देहरूप हो तथा पापरूप हो और दोषोंसे संयुक्त हो एवम् ईर्षाको उत्पन्न करनेवाला हो वह अन्यके पूछनेपरभी नहीं कहना चाहिये । तथा किसी प्रकार सुनना भी नहीं चाहिये । भावार्थ-निपिद्धवचनका प्रसंगभी नहीं करना चाहिये ।। १२ ॥
मर्मच्छेदि मनःशल्यं च्युतस्थैर्य विरोधकम् ।
निर्दयं च वचस्त्याज्यं प्राणैः कण्ठगतैरपि ॥ १३ ॥ अर्थ-तथा मर्मका छेदनेवाला, मनमें शल्य उपजानेवाला, स्थिरतारहित (चंचलरूप), विरोध उपजानेवाला तथा दयारहित वचन कण्ठगतप्राण होनेपर भी नहीं । बोलना चाहिये ॥ १३ ॥
धन्यास्ते हृदये येषामुदीर्णः करुणाम्बुधिः। .
वाग्वीचिसञ्चयोल्लासैनिर्वापयति देहिनः ॥ १४ ॥ अर्थ-इस जगतमें वे पुरुष धन्य हैं जिनके हृदय में करुणारूप समुद्र उदय होकर वचनरूप लहरोंके समूहोंके उल्लासोंसे जीवोंको शान्तिप्रदान करता है। भावार्थकरुणारूप वचनोंको सुनकर दुःखी जीवभी सुखी हो जाते हैं ॥ १४ ॥
धर्मनाशे क्रियाध्वंसे सुसिद्धान्तार्थविप्लवे । __ अपृष्टैरपि वक्तव्यं तत्स्वरूपप्रकाशने ॥१५॥ अर्थ-जहां धर्मका नाश हो, क्रिया बिगड़ती हो तथा समीचीन सिद्धान्तका लोप होता हो उस जगह समीचीन. धर्मक्रिया और सिद्धान्तके प्रकाशनार्थ विना पूछे भी। विद्वानोंको बोलना चाहिये । क्योंकि यह सत्पुरुषोंका कार्य है ॥ १५ ॥ .: . या मुहुर्मोहयत्येव विश्रान्ता कर्णयोजनम् । . .
विषमं विषमुत्सृज्य साऽवश्यं पन्नगी न गीः ॥ १६॥ -