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रायचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम्
अर्थ - जो वाणी लोकके कानों में वारंवार पड़ी हुई तथा विपमविपको उगलती हुई जीवोंको मोहरूप करती है और समीचीनमार्गको भुलाती है वह वाणी नहीं है किन्तु सर्पिणी है । भावार्थ - जिन वचनोंको सुनतेही संसारी प्राणी उत्तम मार्गको छोड़कर कुमार्गमें पड़ जाय वह वचन सर्प के समान हैं ॥ १६ ॥
असत्येनैव विक्रम्य चार्वाकद्विजकौलिकैः । सर्वाक्षपोषकं धूर्तेः पश्य पक्षं प्रतिष्ठितम् ॥ १७ ॥
अर्थ—इस असत्य वचनके प्रभावसेही चार्वाक ( नास्तिकमती ) और ब्राह्मणकुल (मीमांसक आदि) पाखण्डियोंने सत्यार्थ मार्गसे च्युत होकर समस्त इन्द्रियोंके विषयोंको पोषनेवाला अपना पक्ष (मत ) स्थापन किया है ॥ १७ ॥
मन्ये पुरजलावर्त्तप्रतिमं तन्मुखोदरम् ।
यतो वाचः प्रवर्त्तन्ते कश्मलाः कार्यनिष्फलाः ॥ १८ ॥
अर्थ - आचार्य महाराज कहते हैं कि मैं ऐसा मानता हूं कि चार्वाक आदि अन्य ती तथा अन्य अनेक असत्यवादियोंके मुखका जो छिद्र है वह नगरके जल निकलनेके पौनाले (मोरी )के समान है । क्योंकि जैसे नगरके पौनालेका जल मैला होता है तथा किसीके कामका नहीं होता । तैसेही उनके मुखसे जो वचन निकलते हैं वेभी मलीन हैं, व कार्यसे शून्य और निःसार हैं ॥ १८ ॥
प्राप्नुवन्त्यतिघोरेषु रौरवादिषु संभवम् । तिर्यक्ष्वथ निगोदेषु मृषावाक्येन देहिनः ॥
१९ ॥
अर्थ - इस असत्यवचनसे प्राणी अतितीव्र रौरवादि नरकोंके बिलों में तथा तिर्यग्योनि एवम् निगोदमें उत्पन्न हुए दुःखों को प्राप्त होते हैं ॥ १९ ॥ न तथा चन्दनं चन्द्रो मणयो मालतीस्रजः ।
कुर्वन्ति निर्वृतिं पुंसां यथा वाणी अतिप्रिया ॥ २० ॥
अर्थ - जीवोंको जिसप्रकार कर्णप्रिय वाणी सुखी करती है उस प्रकार चन्दन, चंद्रमा, चन्द्रमणि मोती तथा मालतीके पुष्पोंकी माला आदि शीतल पदार्थ सुखी नहीं कर सकते हैं । यह प्रसिद्ध लोकोक्ति है ॥ २० ॥
अपि दावानलघुष्टं शाडुलं जायते वनम् ।
न लोकः सुचिरेणापि जिह्वानलकदर्शितः ॥ २१ ॥
अर्थ --- दावानल अग्निसे दग्ध हुआ वन तो किसी कालमें हरित ( हरा ) हो भी जाता है, परन्तु जिह्वारूपी अग्निसे ( कठोर मर्मच्छेदी वचनोंसे ) पीडित हुआ लोक बहुतकाल बीत जानेपरभी हरित ( प्रसन्नमुख ) नहीं होता । भावार्थ - दुर्वचनका दाग मिटना कठिन है ॥ २१ ॥