________________
ज्ञानार्णवः ।
सर्वलोकप्रिये तथ्ये प्रसन्ने ललिताक्षरे ।
वाक्ये सत्यपि किं ब्रूते निकृष्टः परुषं वचः ॥ २२ ॥
अर्थ- जो वचन सर्वलोकको प्रिय, सत्य तथा प्रसन्न करनेवाले व ललिताक्षरवाले हैं उनके होते हुए भी नीचपुरुष कठोर वचन किसलिये कहते हैं सो मालूम नहीं होता है ? ॥ २२ ॥
सतां विज्ञाततत्त्वानां सत्यशीलावलम्बिनाम् । चरणस्पर्शमात्रेण विशुद्ध्यति धरातलम् ॥ २३ ॥
अर्थ - जो महापुरुष सत्यवचन बोलनेवाले हैं, तत्वोंके यथार्थ स्वरूपको जानते हैं, और सत्यशीलादिके अवलंबी हैं उनके चरणोंके स्पर्शमात्र से यह धरातल पवित्र होता है । ऐसेही लोग उत्तम पुरुष हैं । और जो असत्य बोलते हैं वेही नीच हैं ॥ २३ ॥ यमव्रतगुणोपेतं सत्यश्रुतसमन्वितम् ।
यैर्जन्म सफलं नीतं ते धन्या धीमतां मताः ॥ २४ ॥
अर्थ -- जिन पुरुषोंने अपना जन्म यमत्रतादि गुणोंसे युक्त सत्यशास्त्रोंके अध्ययनपूर्वक सफल किया है वेही धन्य और विद्वानोंके द्वारा पूजनीय हैं ॥ २४ ॥
१२५
नृजन्मन्यपि यः सत्यप्रतिज्ञाप्रच्युतोऽधमः ।
स न कर्मणा पश्चाजन्मपङ्कान्तरिष्यति ॥ २५ ॥
अर्थ- जो अधम पापी चपुरुष मनुष्यजन्म पाकरभी सत्यप्रतिज्ञासे रहित है, वह पापी फिर संसाररूप कर्द्दमसे किस कार्य से पार होगा ? । भावार्थ - तरनेका अवसर तो मनुष्यजन्मही है । इसमें ही धर्माचरण तथा प्रतिज्ञादि बन सकते हैं । इसके चलेजाने पर फिर तरनेका अवसर प्राप्त होना कठिन है; अतएव मनुष्यजन्मको सत्यशीलादिसे सफल करना चाहिये ॥ २५॥
अर्थ
अदयैः संप्रयुक्तानि वाक्छस्त्राणीह भूतले ।
सद्यो मर्माणि कृन्तन्ति शितास्त्राणीव देहिनाम् ॥ २६ ॥
अर्थ — निर्दय पुरुषोंके द्वारा चलाये हुए वचनरूप शस्त्र इस पृथिवीतलपर जीवोंके मर्मको तीक्ष्णशस्त्रोंके समान तत्काल छेदन करते हैं । क्योंकि असत्य वचनके समान दूसरा कोई भी शस्त्र नहीं है ॥ २६ ॥
व्रतश्रुतयमस्थानं विद्याविनयभूषणम् ।
चरणज्ञानयोर्वीजं सत्यसंज्ञं व्रतं मतम् ॥ २७ ॥
यह सत्यनामा व्रत, व्रत, श्रुत और यमोंका तो स्थान है, तथा विद्या