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और विनयका भूषण है । होते हैं । और सम्यक् चारित्र चनही है ॥ २७ ॥
रायचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम्
क्योंकि विद्या और विनय सत्यवचनहीसे शोभाको प्राप्त तथा सम्यग्ज्ञानका बीज उत्पन्न करनेका कारण सत्यव -
न हि सत्यप्रतिज्ञस्य पुण्यकर्मावलम्बिनः । प्रत्यूहकरणे शक्ता अपि दैत्योरगादयः ॥ २८ ॥ अर्थ – सत्यप्रतिज्ञावाले पुण्यकर्मावलंबी पुरुषका दुष्ट दैत्य तथा सर्पादिक कुछ भी बुरा करनेको समर्थ नहीं हो सकत हैं ॥ २८ ॥
चन्द्रमूर्त्तिरिवानन्दं वर्द्धयन्ती जगत्रये । स्वर्गिभिर्धियते मूर्ध्ना कीर्तिः सत्योत्थिता नृणां ॥ २९ ॥
अर्थ-तीन लोकमें चन्द्रमाके समान आनंदको बढ़ानेवाली सत्यवचनसे उत्पन्न हुई मनुष्योंकी कीर्तिको देवता भी मस्तकपर धारण करते हैं ॥ २९ ॥
स्खण्डितानां विरूपाणां दुर्विधानां च रोगिणाम् । कुलजात्यादिहीनानां सत्यमेकं विभूषणं ॥ ३० ॥
अर्थ - जिनके हाथ नाक आदि अवयव कटे हों तथा जो विरूप हों, और जो दरिद्री तथा रोगी हों वा कुलजात्यादिसे हीन हों उनका भूपण सत्यवचन बोलनाही है । अर्थात् यही उनकी शोभा करनेवाला है । क्योंकि जो उक्त समस्त वातोंसे हीन और सत्यवचन बोलता हो, उसकी सब कोई प्रशंसा करते हैं ॥ ३० 1,
यस्तपखी जटी मुण्डो नग्नो वा चीवरावृतः ।
सोऽप्यसत्यं यदि ब्रूते निन्द्यः स्यादन्त्यजादपि ॥ ३१ ॥
अर्थ - जो तपखी हो, जटाधारी हो, मस्तक मुँडाये हो अथवा नग्न ( दिगम्बर) हो, वा वस्त्रधारी हो और असत्य बोलता हो तो वह चंडालसेभी बुरा और अतिशय निंद'नीय है ॥ ३१ ॥
कुटुम्बं जीवितं वित्तं यद्यसत्येन वर्द्धते ।
तथापि युज्यते वक्तुं नासत्यं शीलशालिभिः ॥ ३२ ॥
अर्थ – यदि असत्य वचनसे अपने कुटुंब, जीवन और धनकी वृद्धि हो तौ भी; शीलसे शोभित पुरुषोंको असत्यवचन कहना उचित नहीं है ॥ ३२ ॥
एकतः सकलं पापमसत्योत्थं ततोऽन्यतः ।
साम्यमेव वदन्त्यार्यास्तुलायां घृतयोस्तयोः ॥ ३३ ॥
. अर्थ - आर्य पुरुषोंने तराजू में एक तरफ तो समस्त पापोंको रक्खा और एक तरफ
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