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ज्ञानार्णवः।
दोहा।
सत्यवचन संसारमै, करै सकल कल्यान ।
मुनि पालै पूरण इसे, पावै मोक्षनिधान ॥१॥ इति श्रीज्ञानार्णवे योगप्रदीपाधिकारे शुभचन्द्राचार्यविरचिते सत्यमहाव्रत
नाम नवमं प्रकरणं ॥ ९॥
अथ अस्तेयमहाव्रतप्रकरणम् ।
आगे अस्तेय महावतका वर्णन करते हैं,
अनासाद्य व्रतं नाम तृतीयं गुणभूषणम् ।
नापवर्गपथि प्रायः कचिद्धत्ते मुनिः स्थितिम् ॥ १॥ अर्थ-मुनि गुणोंका भूषणस्वरूप तीसरे अस्तेयनामा महाव्रतको अंगीकार नहिं करे तो मोक्षमार्गमें प्रायः कहींभी स्थिरताको प्राप्त नहिं होता ॥ १ ॥
यः समीप्सति जन्माब्धेः पारमाक्रमितुं सुधीः । स त्रिशुद्ध्यातिनिःशङ्को नादत्ते कुरुते मतिं ॥२॥ अर्थ-जो पुरुष संसारसमुद्रसे पार होनेकी इच्छा रखता है वह सुवुद्धि निःशंक (निःशल्य ) होकर मनवचनकायसे अदत्त (विना दीहुई ) वस्तुके ग्रहण करनेकी इच्छा नहिं करता ॥ २॥
वित्तमेव मतं सूत्रे प्राणा वाह्याः शरीरिणाम् ।
तस्यापहारमात्रेण स्युस्ते प्रागेव घातिताः॥३॥ अर्थ-धन शास्त्रोंमें जीवोंको वाह्यप्राण कहा गया है. इसकारण, उस धनका हरण करनेसे जीवोंके प्राण घातित हो जाते हैं । भावार्थ-यदि किसीने किसीका धन हरण किया तो उसने उसके प्राणही हरे ऐसा समझना चाहिये । इस चोरीका करनाभी हिंसा है ॥ ३ ॥
गुणा गौणत्वमायान्ति यान्ति विद्या विडम्बनाम् ।
चौर्येणाकीर्तयः पुंसां शिरस्याद्धते पदं ॥४॥ अर्थः-चोरी करनेवालेके गुण तो गौणताको प्राप्त हो जाते हैं तथा विद्या विडंबनाको प्राप्त होती है और अकीर्तिये (निंदायें ) मस्तकपर पग धरती हैं । भावार्थ-चोरी करनेवाले पुरुषके गुणको कोई भी नहिं गाता है तथा शास्त्र पढ़ना आदि विद्यायें विपरीत हो जाती हैं और अकीर्तिका टीका ललाटपर लगाना पड़ता है ॥ ४ ॥