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ज्ञानार्णवः । और स्त्रीके समान चित्तको आनन्द देनेवाली है तथा सदुपदेश देनेके लिये सरखतीके समान है ॥ ५० ॥ ': ': खान्ययोरप्यनालोक्य सुखं दुःखं हिताहितम् । . . ...जन्तून या पातकी हन्यात्स नरत्वेऽपि राक्षसः ॥५१॥ ..
अर्थ-जो पापी नर अपने और अन्यके सुख दुःख वा हित अनहितको न विचार कर जीवोंको मारता है वह मनुष्यजन्ममें भी राक्षस है। क्योंकि मनुष्य होता तो अपना वा परका हिताहित विचारता ॥ ५१ ॥ : . अभयं यच्छ भूतेषु कुरु मैत्रीमनिन्दिताम्। . .
__..पश्यात्मसदृशं विश्वं जीवलोकं चराचरम् ॥५२॥ . : अर्थ-आचार्य महाराज उपदेश करते हैं कि- हे भव्य ! तू जीवोंके लिये अभयदान दे तथा उनसे प्रशंसनीय मित्रता कर और समस्त त्रस तथा स्थावर जीवोंको अपने समान देख ॥ ५२ ॥ • जायन्ते भूतयः पुंसां याः कृपाक्रान्तचेतसाम् ।
चिरेणापि न ता वक्तुं शक्ता देव्यपि भारती ।। ५३ ॥ अर्थ-जिनका चित्त दयालु है उन पुरुषोंको जो सम्पदा होती हैं, उनका वर्णन सरखती देवी भी बहुत कालपर्यन्त करे तो भी उससे नहीं हो सकता फिर अन्यसे तो किया ही कैसे जा सकता है ? ॥ ५३ ॥
किं न तप्तं तपस्तेन किं न दत्तं महात्मना ।
वितीर्णमभयं येन प्रीतिमालम्ब्य देहिनाम् ॥ ५४॥ अर्थ-जिस महापुरुपने जीवोंको प्रीतिका आश्रय देकर अभयदान दिया उस महात्माने कौनसा तप नहीं किया और कौनसा दान नहीं दिया है। अर्थात् उस महापुरुषने समस्त तप, दान किया । क्योंकि अभयदानमें सब तप, दान आजाते हैं | ५४ ।। . . यथा यथा हृदि स्थैय करोति करुणा नृणाम् ।। " तथा तथा विवेकश्रीः परां प्रीति प्रकाशते ॥ ५५ ॥ . : । अर्थ-पुरुषोंके हृदयमें जैसे-जैसे करुणाभाव स्थिरताको प्राप्त करना है तैसे तैसे विवेकरूपी लक्ष्मी उससे परमप्रीति प्रगट करती रहती है । भावार्थ-करुणा (दया) विवेकको बढ़ाती है ।। ५५॥
अन्ययोगव्यवच्छेदादहिंसा श्रीजिनागमे ।।
परैश्च योगमात्रेण कीर्तिता सा यदृच्छया ॥५६॥ : अर्थ-जिनेन्द्र भगवान्के मार्गमें तो अहिंसा अन्ययोग्यव्यवच्छेदसे कही है। अर्थात् अन्यमतोंमें ऐसी अहिंसाका योगही नहीं है । इस जिनमतमें तो हिंसाका सर्वथा निषेधही