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ज्ञानार्णवः ।
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अर्थ- जिनके सब अंग भयसे कंपित हैं, जिनका कोई रक्षक नहीं, जो अनाथ हैं, जिनको जीवनही एक मात्र प्रियवस्तु है, ऐसे प्राणियोंको जो मारते हैं उन्होंने क्या अपनेको अजरामर जान लिया ! । भावार्थ - अपनेको भी कोई मारेगा यह उन्होंने नहीं जाना ॥ ३९ ॥
स्वपुत्रपौत्रसन्तानं वर्द्धयन्त्यादरैर्जनाः ।
व्यापादयन्ति वान्येषामत्र हेतुर्न वुद्ध्यते ॥ ४० ॥
अर्थ - यह बड़ा आश्चर्य है कि अपने पुत्रपौत्रादिसन्तानको तो बडे यत्त्रसे पालते और बढ़ाते हैं परन्तु दूसरोंकी सन्तानका घात करते हैं । न मालूम कि इसमें क्या हेतु है ? । भावार्थ - यह महामोहका ( अज्ञानका ) ही माहात्म्य है ॥ ४० ॥
परमाणोः परं नाल्पं न महद्दुगनात्परं ।
यथा किञ्चित्तथा धर्मों नाहिंसालक्षणात्परः ॥ ४१ ॥
अर्थ — इस लोक में जैसे परमाणुसे तो कोई छोटा वा अल्प नहीं है और आकाशसे कोई बड़ा नहीं है । इसी प्रकार अहिंसारूप धर्मसे बड़ा कोई धर्म नहीं है । यह जगत्मसिद्ध लोकोक्ति है । यथा-" अहिंसा परमो धर्म: हिंसा सर्वत्र गर्हिता” ॥
४१ ॥
तपःश्रुतयमज्ञानध्यानदानादिकर्मणां ।
सत्यशीलव्रतादीनामहिंसा जननी मता ॥ ४२ ॥
अर्थ – तप, श्रुत (शास्त्रका ज्ञान ), यम ( महाव्रत ), ज्ञान ( बहुत जानना ), ध्यान और दान करना तथा सत्यशील व्रतादिक जितने उत्तम कार्य हैं उन सबकी माता एक अहिंसाही है | अहिंसात्रतके पालन विना उपर्युक्त गुणोंमेंसे एक भी नहीं होता इस कारण अहिंसाही समस्त धर्मकार्योंकी उत्पन्न करनेवाली माता है ॥ ४२ ॥
करुणार्द्रं च विज्ञानवासितं यस्य मानसम् । इन्द्रियार्थेषु निःसङ्गं तस्य सिद्धं समीहितम् ॥ ४३ ॥
अर्थ - जिस पुरुपका मन करुणासे आर्द्र ( गीला ) हो तथा विशिष्ट ज्ञानसहित हो और इन्द्रियोंके विषयोंसे दूर हो उसीको मनोवांछित कार्यकी सिद्धि होती है ॥ ४३ ॥ निस्त्रिंश एव निस्त्रिंशं यस्य चेतोऽस्ति जन्तुषु । तपः श्रुताद्यनुष्ठानं तस्य क्लेशाय केवलम् ॥ ४४ ॥
अर्थ - जिस पुरुषका चित्त जीवोंके लिये शस्त्रके समान निर्दय है उसका तप करना और शास्त्रका पढ़ना आदि कार्य केवल कष्टके लियेही होता है किंतु कुछ भलाई के लिये नहीं होता ॥ ४४ ॥