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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् दान प्रधान है । क्योंकि एक प्राणीके घातसे उत्पन्न हुआ पाप सात द्वीप और कुलाचलोंसहित पृथिवी दान करनेसे भी दूर नहीं होता ॥ ३४ ॥
सकलजलधिवेलावारिसीमां धरित्री
नगरनगसमग्रां वर्णरत्नादिपूर्णाम् । यदि मरणनिमित्ते कोऽपि दद्यात्कथंचित्
तदपि न मनुजानां जीविते त्यागवुद्धिः ॥ ३५ ॥ अर्थ-जो कोई किसी मनुष्यको मरजानेके बदलेमें नगर, पर्वत तथा सुवर्ण रनधन धान्यादिसे भरी हुई समुद्रपर्यन्तकी पृथिवीका दान करै तौ भी अपने जीवनको त्याग करनेमें उसकी इच्छा नहीं होगी। भावार्थ-मनुष्योंको जीवन इतना प्यारा है कि मरनेके लिये जो कोई समस्त पृथिवीका राज्य दे तो भी मरना नहीं चाहता । इस कारण एक जीवको बचाने में जो पुण्य होता है वह समस्त पृथिवीके दानसे भी अधिक होता है ॥ ३५॥
आत्मैवोत्क्षिप्य तेनाश प्रक्षिप्तः श्वभ्रसागरे।
लेहभ्रमभयेनापि येन हिंसा समर्थिता ॥ ३६॥ अर्थ-जिस पुरुषने किसीकी प्रीतिके श्रमसे अथवा किसीके भयसे हिंसाका समर्थन किया कि हिंसाकरना बुरा नहीं है तो ऐसा समझो कि उसने अपनी आत्माको उसी समय नरकरूपी समुद्रमें डाल दिया ॥ ३६॥
शूलचक्रासिकोदण्डैरुयुक्ताः सत्वखण्डने।
येऽधमास्तेऽपि निस्त्रिशैवत्वेन प्रकल्पिताः ॥ ३७॥ अर्थ-जो पापी त्रिशूल चक्र, तरवार और धनुष इत्यादि शस्त्रोंसे जीवोंको घात करनेमें उद्यत हैं ऐसे चंडी, काली, भैरवादिकोंको भी निर्दय पुरुष देवता मानकर उनकी स्थापना करते हैं । भावार्थ-जो जीवोंके घात करने में प्रवृत्ति करे वह काहेका देव ? परन्तु जो निर्दयी जन हैं उनको ऐसे निर्दयी देवही इष्ट लगते हैं ॥ ३७ ॥
बलिभिबलस्यात्र क्रियते या पराभवः ।
परलोके स तैस्तस्मादनन्तः प्रविषह्यते ॥ ३८॥ अर्थ-जो बलवान् पुरुष इस लोकमें निर्बलका पराभव करता वा सताता है वह परलोकमें उससे अनन्तगुणा पराभव सहता है । अर्थात-जो कोई बलवान् निर्बलको दुःख देता है तो उसका अनन्त गुणा दुःख वह खयम् अगले जन्ममें भोगता है ॥ ३८ ॥ • , भयवेपितसर्वाङ्गाननाथान् जीवितप्रियान् ।
. . निघ्नद्भिः प्राणिनः किं तैः खं ज्ञातमजरामरं ॥ ३९ ।।