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रायचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम्
अर्थ - जो मूढ अधम धर्मकी बुद्धिसे जीवोंको मारता है सो पापाणकी शिलाओंपर बैठकर समुद्रको तैरनेकी इच्छा करता है । क्योंकि वह नियमसे डूवेगा ॥ २३ ॥ प्रमाणीकृत्य शास्त्राणि यैर्वधः क्रियतेऽधमैः ।
# सह्यते परलोके तैः श्वभ्रे शूलाधिरोहणम् ॥ २४ ॥
अर्थ - जो अधम शास्त्रोंका प्रमाण देकर जीवोंका वध करना धर्म बताते हैं वे मृत्यु होनेपर नरकमें शूली पर चढ़ाये जाते हैं । भावार्थ - अनेक अज्ञानी कहते हैं कि वेदशास्त्रमें यंज्ञके समय जीववध करना कहा है, उसीको ईश्वरकृत प्रमाणभूत मानकर हम पशुवध - करते हैं । परंतु ऐसा कहनेवाले अधर्मी हैं । क्योंकि जिस शास्त्रमें जीववध धर्म कहा हो वह शास्त्र कदापि प्रमाणभूत नहीं कहा जा सकता । उसको जो अज्ञानी प्रमाण मानकर हिंसा करते हैं वे अवश्यही नरकमें पड़ते हैं ॥ २४ ॥
निर्दयेन हि किं तेन श्रुतेनाचरणेन च ।
यस्य स्वीकारमात्रेण जन्तवो यान्ति दुर्गतिम् ॥ २५ ॥
अर्थ - जिसमें दया नहीं है ऐसे शास्त्र तथा आचरण से क्या लाभ? क्योंकि ऐसे
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शास्त्रके वा आचरणके अंगीकार मात्रहीसे जीव दुर्गतिको चले जाते हैं ॥ २५ ॥
वरमेकाक्षरं ग्राह्यं सर्वसत्त्वानुकम्पनम् ।
न त्वक्षपोषकं पापं कुशास्त्रं धूर्त्तचर्चितम् ॥ २६ ॥
अर्थ - सर्व प्राणियों पर दया करनेवाला तो एक अक्षर श्रेष्ठ है और ग्रहण करने योग्य है, परन्तु धूर्त तथा विषयकषायी पुरुषोंका रचा हुआ इन्द्रियोंको पोपनेवाला जो पापरूप कुशास्त्र है वह श्रेष्ठ नहीं है ॥ २६ ॥
मौषधानां वा हेतोरन्यस्य वा कचित् ।
कृता सती नरैहिंसा पातयत्यविलम्बितम् ॥ २७ ॥ अर्थ–देवताकी पूजाके लिये रहुंचेए नैवेद्य तथा मंत्र और औषधके निमित्त अथवा अन्य किसीभी कार्यके लिये की हुई हिंसा जीवों को नरकमें लेजाती है ॥ २७ ॥ वंशस्थम् । विहाय धर्म शमशीलला ञ्छितं
दयावहं भूतहितं गुणाकरम् । मदोद्धता अक्षकषायश्चिता
दिशन्ति हिंसामपि दुःखशान्तये ॥ २८ ॥
अर्थ - जो पुरुष गर्वसे उद्धत हैं और इन्द्रियोंके विषय तथा कपायोंसे ठगे गये हैं वेही मन्दकषाय तथा उपशमरूप शीलसे चिह्नित दयामयी जीवों के हितकरनेवाले गुणोंकी