________________
ज्ञानार्णवः ।
शान्त्यर्थं देवपूजार्थं यज्ञार्थमथवा नृभिः ।
कृतः प्राणभृतां घातः पातयत्यविलम्बितं ॥ १८ ॥
अर्थ - अपनी शान्तिके अर्थ अथवा देवपूजाके तथा यज्ञके अर्थ जो मनुष्य जीवधात ( जीवहिंसा ) करते हैं वह घात भी जीवोंको शीघ्रही नरकमें डालता है ॥ १८ ॥ हिंसैव दुर्गतेर्द्वारं हिंसैव दुरितार्णवः ।
हिंसैव नरकं घोरं हिंसैव गहनं तमः ॥ १९ ॥
अर्थ - हिंसा ही दुर्गतिका द्वार है, पापका समुद्र है तथा हिंसाही घोर नरक और महा अन्धकार है । भावार्थ- - समस्त पापोंमें मुख्य हिंसाही है । जितनी खोटी उपमायें हैं; सब हिंसाको लगती हैं ॥ १९ ॥
निःस्पृहत्वं महत्त्वं च नैराश्यं दुष्करं तपः ।
कायक्लेशश्च दानं च हिंसकानामपार्थकम् || २० ||
११३
अर्थ — जो हिंसक पुरुष हैं उनकी निस्पृहता, महत्ता, आशारहितता, दुष्कर तप करना, कायक्लेश और दान करना आदि समस्त धर्मकार्य व्यर्थ हैं अर्थात् निष्फल हैं ॥ २० ॥ कुल क्रमागता हिंसा कुलनाशाय कीर्तिता ।
कृता च विघ्नशान्त्यर्थं विघ्नौघायैव जायते ॥ २१ ॥
अर्थ - कुलक्रमसे जो हिंसा चली आई है वह उस कुलको नाश करनेके लियेही कही गई है तथा विकी शान्तिके अर्थ जो हिंसा की जाती है वह विघ्नसमूहको बुलानेके लियेही है । भावार्थ- कोई कहै कि हमारे कुलमें देवी आदिका पूजन चला आता है अतएव हम बकरे भैंसेका घात करके देवीको चढ़ाते हैं और इसीसे कुलदेवीको सन्तुष्ट हुई मानते हैं. तथा ऐसा करने से कुलदेवी कुलकी वृद्धि करती है, इस प्रकार श्रद्धान करके जो बकरे आदिकी हिंसा की जाती है वह कुलनाशके लियेही होती है, कुलवृद्धिके लिये कदापि नहीं । तथा कोई २ अज्ञानी विघ्नशान्त्यर्थ हिंसा करते हैं और यज्ञ कराते हैं उनको उलटा विघ्नही होता है और उनका कभी कल्याण नहिं हो सकता है ॥ २१ ॥ सौख्यार्थे दुःखसन्तानं मङ्गलार्थेऽप्यमङ्गलम् ।
जीवितार्थे ध्रुवं मृत्युं कृता हिंसा प्रयच्छति ॥ २२ ॥
अर्थ-सुखके अर्थ की हुई हिंसा दुःखकी परिपाटी करती है, मंगलार्थ की हुई हिंसा अमङ्गल करती है, तथा जीवनार्थ की हुई हिंसा मृत्युको प्राप्त करती है । इस बातको निश्चय जानना ॥ २२ ॥
तितीर्षति ध्रुवं मूढः स शिलाभिर्नदीपतिं । धर्मयुद्ध्याऽधमो यस्तु घातयत्यङ्गिसंचयम् ॥ २३ ॥
१५