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ज्ञानार्णवः ।
६३ अर्थ-जिनेन्द्रमगवान् सम्यग्दर्शन ज्ञान और चरित्रको मुक्तिका कारण कहते हैं, अतएव जो मुक्तिकी इच्छा करते हैं, वे इन सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रसे ही मोक्षका साधन कहते हैं। भावार्थ-जिस कार्यका जो कारण होता है, उसको अंगीकार करनेसे ही वह कार्य सिद्ध होता है ।। ११ ॥
अव कहते हैं कि, मोक्षके साधन जो सम्यग्दर्शनादिक हैं, उनहीमें ध्यान गर्भित है इस कारण प्रगटकरके ध्यानका उपदेश देते हैं,
भवक्लेशविनाशाय पिव ज्ञानसुधारसम् ।
कुरु जन्माधिमत्येतुं ध्यानपोतावलम्बनम् ॥ १२॥ अर्थ-हे आत्मन् ! तू संसारके दुःखविनाशार्थ ज्ञानरूपी सुधारसको पी और संसाररूप समुद्रके पार होनेकेलिये ध्यानरूपी जहाजका अवलम्बन करो । भावार्थ-एक ताका होना ध्यान है, अतः जब प्रथम ही ज्ञानको अंगीकार करेगा तब उससे एकाग्रता होनेपर कर्मोको काटके संसारको परित्यागकरके मोक्षको पावेगा ॥ १२ ॥
मोक्षः कर्मक्षयादेव स सम्यग्ज्ञानंतः स्मृतः।
ध्यानसाध्यं मतं तद्धि तस्मात्तडितमात्मनः ॥ १३ ॥ अर्थ-मोक्ष कर्मोंके क्षयसे ही होता है । कर्मोका क्षय सम्यग्ज्ञानसे होता है और वह सम्यग्ज्ञान ध्यानसे सिद्ध होता है अर्थात् ध्यानसे ज्ञानकी एकाग्रता होती है, इस कारण ध्यान ही आत्माका हेतु है ।। १३ ॥
अपास्य कल्पनाजालं मुनिभिर्मोक्तुमिच्छुभिः ।
प्रशमैकपरैर्नित्यं ध्यानमेवावलम्बितम् ॥१४॥ अर्थ-आत्माका हित ध्यान ही है । इस कारण जो कर्मोसे मुक्त होनेके इच्छुक मुनि हैं, उन्होंने प्रशम-कपायोंकी मंदताकेलिये तत्पर होकर कल्पनासमूहोंका नाशकरके, नित्य ध्यानहीका अवलंबन किया है । भावार्थ-जब तक मुनिके चित्तकी स्थिरता रहै, तव तक ध्यान करना ही प्रधान है । जब चित्तकी स्थिरता नहीं रहती, तब वे शास्त्रविचारादि अन्यक्रियाओंमें लगते हैं ॥ १४ ॥ आगे ध्यानप्रधानकी योग्यताका उपदेश करते हैं,
मोहं त्यज भज स्वास्थ्यं मुञ्च सङ्गान् स्थिरीभव। यतस्ते ध्यानसामग्री सविकल्पा निगद्यते ॥ १५ ॥ अर्थ-आचार्य महाराज कहते हैं कि, हे आत्मन् ! तू संसारके मोहको छोड,
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१. 'सम्यग्ज्ञानज' इत्यपि पाटः।