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ज्ञानार्णवः ।
दोहा। रत्नत्रयको धार जे, शम दम यम चित देय ।
ध्यान करें मन रोकिक, धन ते मुनि शिव लेय ॥ १॥ इति श्रीज्ञानार्णवे योगप्रदीपाधिकारे शुभचन्द्राचार्यविरचिते पञ्चमः सर्गः ॥ ५ ॥
अथ षष्ठः सर्गः।
आगे ध्याता ध्यानके अंगस्वरूप सम्यग्दर्शनादिकका व्याख्यान करते हैं
सुप्रयुक्तैः स्वयं साक्षात्सम्यग्दृग्बोधसंयमैः ।
त्रिभिरेवापवर्गश्रीर्घनाश्लेषं प्रयच्छति ॥१॥ अर्थ-भलेप्रकार प्रयुक्त किये हुए सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र इन तीनोंसे अर्थात् तीनोंकी एकता होनेसे मोक्षरूपी लक्ष्मी उस रत्नत्रययुक्त आत्माको स्वयं दृढालिंगन देती है । भावार्थ-तीनोंकी एकता ही मोक्षमार्ग है ॥ १ ॥ क्योंकि
तैरेव हि विशीर्यन्ते विचित्राणि बलीन्यपि ।।
दृग्योधसंयमैः कर्मनिगडानि शरीरिणाम् ॥२॥ अर्थ-इन सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्रसे ही जीवोंकी नानाप्रकारकी वलवान् कर्मरूपी वेडियां झरती हैं (टूटती हैं) ॥ २ ॥
त्रिशुद्धिपूर्वकं ध्यानमामनन्ति मनीषिणः ।
व्यर्थ स्यात्तामनासाद्य तदेवान शरीरिणाम् ।। ३ ॥ अर्थ-विद्वानोंने दर्शन ज्ञान चारित्रकी शुद्धतापूर्वकही ध्यान कहा है । ऐसा : आमाय है । इस कारण इन तीनोंकी शुद्धता पायेविना जीवोंका ध्यान करना व्यर्थ है। क्योंकि वह ध्यान मोक्षफलके अर्थ नहीं है ॥ ३॥
रत्नत्रयमनासाद्य यः साक्षाद्ध्यातुमिच्छति ।
खपुष्पैः कुरुते मूढः स वन्ध्यासुतशेखरम् ॥ ४ ॥ __ अर्थ-जो पुरुष साक्षात् रत्नत्रयको (सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यक्चारित्रको) प्राप्त न होकर ध्यान करना चाहता है, वह मूर्ख आकाशके फूलोंसे वंध्याके पुत्रके लिये सेहरा (मौर) बनाना चाहता है । भावार्थ-रत्नत्रय पाये बिना ध्यान होना असाध्य है ॥ ४ ॥
आर्या। . . तत्त्वरुचिः सम्यक्त्वं तत्वप्रख्यापकं भवेज्ज्ञानम् ।
पापक्रियानिवृत्तिश्चरित्रमुक्तं जिनेन्द्रेण ॥५॥