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ज्ञानार्णवः ।
धर्माधर्मभकाला अर्थपर्यायगोचराः ।
व्यञ्जनाख्यस्य संवन्धौ द्वावन्यौ जीवपुद्गलौ ॥ ४० ॥
अर्थ - धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये चार पदार्थ तो अर्थपर्यायगोचर हैं, और अन्य दो अर्थात् जीव तथा पुद्गल व्यञ्जनपर्यायके सम्बन्धरूप हैं । भावार्थ-धर्मादिकं चार द्रव्योंके आकार पलटते नहीं, इस कारण हानिवृद्धि के परिणमनरूप अर्थपर्यायही इनके मुख्य कहे हैं । और जीव तथा पुद्गलोंके आकार पलटते रहते हैं इसकारण इनके व्यञ्जनपर्याय मुख्य कहे गए हैं ॥ ४० ॥
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भावाः पश्चैव जीवस्य द्वावन्त्यौ पुद्गलस्य च ।
धर्मादीनां तु शेषाणां स्याद्भावः पारिणामिकः ॥ ४१ ॥
अर्थ - जीवके औदयिकादि पांचों ही भाव हैं और पुलके अन्तिम दो अर्थात् सूत्रपाठकी अपेक्षा अन्तिम औदयिक और पारिणामिक हैं, तथा शेष धर्मादिक चार द्रव्योंके एक पारिणामिक भावही है ॥ ४१ ॥
अन्योऽन्य संक्रमोत्पन्नो भावः स्यात्सान्निपातिकः । षड्विंशदभिन्नात्मा स षष्ठो मुनिभिर्मतः ॥ ४२ ॥
अर्थ - जीवके इन पांच भावोंके परस्पर संयोगसे उत्पन्न हुआ सान्निपातिक नामका एक छठा भाव भी आचार्योंने माना है । वह छव्वीस प्रभेदोंसे भेदरूप है, तथा छत्तीस भेदरूप और इकतालीस भेदरूपभी कहा है । 'तन्त्रार्थवार्तिक' नाम तत्वार्थसूत्रकी टीका भावोंका अच्छा विस्तार किया है.
यहां यदि कोई प्रश्न करे कि, जीवके पांच वा छह आदि भाव क्यों किये ? क्योंकि जीवका यथार्थ भाव एक पारिणामिकही है । औदयिक आदिक भाव तो कर्मजन्य हैं, टीकामें उन्हें जीवके भाव कैसे कहते हो ?
उत्तर- ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि ये भाव यद्यपि कर्मजनित हैं तथापि जीवही इन भावोंके रूपमें परिणमता है । अनादि कर्मबन्धके निमित्तसे जीवकी ऐसी ही सामर्थ्य है कि, जब जैसे कर्मका उदयादिक निमित्त हो वैसा ही यह भावरूप परिणमता
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है । यदि ऐसा नहीं माना जायगा, तो जीव सांख्यमती तथा वेदांतमतावलम्बियों के समान नित्य कूटस्थ ठहरैगा और उसके संसारका होना भी नहीं ठहरेंगा । और जव संसारअवस्था ही नहीं होगी तब फिर मोक्षका अभाव मानना पड़ेगा । तथा मोक्षका अभाव माननेसे बड़ाही दोष आवेगा । इस कारण जैनमतमे जीवके कर्मका बन्ध होना तथा कर्मके नाश होनेपर मोक्षहोना कहा गया है । और मोक्ष होनेका उपाय सम्यग्दर्शन,
१ औदयिक, औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक (मिश्र) और पारिणामिक ये पांच भाव हैं ।