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ज्ञानार्णवः। अथ अष्टमः सर्गः।
-weआगे सम्यक्चारित्रका वर्णन करते हैं,
यदिशुद्धेः परं धाम यद्योगिजनजीवितम् ।
तवृत्तं सर्वसावधपर्युदासैकलक्षणम् ॥१॥ अर्थ-जो विशुद्धताका उत्कृष्ट धाम है तथा योगीश्वरोंका जीवन है और समस्त प्रकारकी पापरूप प्रवृत्तियोंसे दूर रहनेका लक्षण है, उसको सम्यकूचारित्र कहते हैं। भावार्थ-जो चारित्र समस्तपापोंसे निवृत्तिखरूप है वही दर्शनको शुद्ध करता है और मुनिजनोंका वही एक जीवनसर्वस्व है. इसके विना मुनिपदवी हो ही नहीं सकती है.॥१॥
सामायिकादिभेदेन पञ्चधा परिकीर्तितम् ।
ऋषभादिजिनैः पूर्वं चारित्रं सप्रपञ्चकम् ॥ २॥ . अर्थ यह चारित्र पूर्वकालमें श्रीऋषभदेवतीर्थंकर महाराजसे लेकर समस्त तीर्थंकरोंने सामायिक १, छेदोपस्थापना २, परिहारविशुद्धि ३, सूक्ष्मसंपराय ४ और यथाख्यातचारित्र ५ ऐसे पांच प्रकारका कहा है ॥ २॥
पञ्चमहाव्रतमूलं समितिमसरं नितान्तमनवद्यम् ।
गुसिफलभारननं सन्मतिना कीर्तितं वृत्तम् ॥३॥ अर्थ-तथा वही चारित्र श्रीवर्द्धमानखामी तीर्थंकर भगवान्ने तेरह प्रकारका कहा है। पांच महाव्रत हैं मूल जिसका तथा पांच समिति हैं प्रसर (फैलाव) जिसका और अत्यन्त निर्दोष तीन गुप्तिरूप फलके भारसे नम्रीभूत ऐसा चरित्ररूपी वृक्ष है। भावार्थ-चरित्र तेरह प्रकारका है । वह वृक्षकी उपमाको धारण करता है । उसकी जड पांच महाव्रत हैं, उसकी विस्तृतशाखायें पांच समिति हैं और उसके फल तीन गुप्तियां हैं ॥३॥ - पञ्च पञ्च त्रिभिर्भेदैयदुक्तं मुक्तसंशयैः ।
भवभ्रमणभीतानां चरणं शरणं परम् ॥४॥ अर्थ-संशयरहित गणधरादिकोंने पांच पांच और तीन भेदसे जो चारित्र कहा है वह संसारके भ्रमणसे भयभीत पुरुषोंके हेतु एक उत्तम शरण है । अर्थात् जो मुनि संसारके भयसे भयभीत हैं वे इस चारित्रका पालन करनेसे भयरहित (अभय ) हो जाते हैं ॥ ४ ॥
पञ्चव्रतं समिपंच गुप्तित्रयपवित्रितम् । श्रीवीरवनोहीण चरणं चन्द्रनिर्मलम् ॥५॥