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रायचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम्
अर्थ - पांच महाव्रत, पांच समिति और तीन गुप्तिरूप तेरह प्रकारका चारित्र जो श्रीवीर (वर्द्धमान) तीर्थंकर भगवान् के मुखसे प्रगट हुआ है वह चन्द्रमाके समान निर्मल है ॥ ५ ॥
हिंसायामनृते स्तेये मैथुने च परिग्रहे । विरतिर्ब्रतमित्युक्तं सर्वसश्वानुकम्पकः ॥ ६ ॥
अर्थ - हिंसा, अनृत, चोरी, मैथुन और परिग्रह इन पापोंमें विरति कहिये त्यागभाव होना ही व्रत है । समस्त जीवोंपर दयालु मुनियोनें ऐसाही कहा है ॥ ६ ॥
इस प्रकार संक्षेपसे कहकर अव प्रथमही अहिंसा महात्रतका वर्णन करते हैं,
सत्याद्युत्तरनिःशेषयमजातनिबन्धनम् ।
शीतैश्चर्याद्यधिष्ठानमहिंसाख्यं महाव्रतम् ॥ ७ ॥
अर्थ - अहिंसा नामा महात्रत सत्यादिक अगले ४ महाव्रतोंका तो कारण है, क्योंकि सत्य चौर्यादि विना अहिंसाके नहीं हो सकते । और शीलादिसहित उत्तरगुणोंकी चर्याका स्थान भी यह अहिंसाही है । अर्थात् समस्त उत्तर गुणभी इस अहिंसा महात्रतके आश्रय हैं ॥ ७ ॥
वाकचित्ततनुभिर्यत्र न खप्नेऽपि प्रवर्त्तते ।
चरस्थिराङ्गिनां घातस्तदाद्यं व्रतमीरितम् ॥ ८ ॥
अर्थ -- जिसमें मनवचनकायसे त्रस और स्थावर जीवोंका घात स्वप्नमें भी न हो उसे आद्यव्रत (प्रथम महाव्रत - अहिंसा) कहते हैं ॥ ८ ॥
मृते वा जीविते वा स्याज्जन्तुजाते प्रमादिनाम् ।
बन्ध एव न बन्धः स्याद्धिंसायाः संवृतात्मनाम् ॥ ९ ॥
अर्थ - जीवोंके मरते वा जीते प्रमादी पुरुषोंको तो निरन्तरही हिंसाका पापवन्ध होताही रहता है । और जो संवरसहित अप्रमादी हैं उनको जीवोंकी हिंसा होते हुए भी हिंसारूप पापका बंध नहीं होता । भावार्थ - कर्मबन्ध होने में प्रधान कारण आत्माके परिणाम हैं; इस कारण जो प्रमादसहित विना यत्न के प्रवर्त्तते हैं उनको तो जीव मरे अथवा न मरे किन्तु कर्मबन्ध होताही है, और जो प्रमादरहित यत्नपूर्वक प्रवृत्ति करते हैं उनके दैवयोगसे जीव मरै तौभी कर्मबन्ध नहीं होता है ॥ ९ ॥
संरम्भादित्रिकं योगैः कषायैर्व्याहतं क्रमात् । शतमष्टाधिकं ज्ञेयं हिंसा भेदैस्तु पिण्डितम् ॥ १० ॥