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ज्ञानार्णवः ।
१०७ अर्थ-प्रमादको क्षीण करनेवाले, क्लेशोंको जीतनेवाले, परिग्रहरहित, स्थिर आशयवाले ये योगिगण उस ज्ञानकी प्राप्तिके लिये यत्नपूर्वक तपस्या करते हैं । भावार्थऐसे ज्ञानी मुनिही इस ज्ञानको पाते हैं ॥ १६॥ ..
वेष्टयत्याऽऽत्मनात्मानमज्ञानी कर्मवन्धनैः।
विज्ञानी मोचयत्येव प्रवुद्धः समयान्तरे ॥ १७॥ अर्थ-अज्ञानी पुरुष आपको अपनेहीसे कर्मरूपी वन्धनोंसे वेष्टित करलेता है। और जो भेदविज्ञानी है वह किसी कालमें सावधान होकर अपनेको कर्मबंधोंसे छुड़ालेता है॥१७॥
यजन्मकोटिभिः पापं जयत्यज्ञस्तपोवलात् ।
तद्विज्ञानी क्षणार्द्धन दहत्यतुलविक्रमः ॥१८॥ अर्थ-जो अज्ञानी है वह तो करोड़ो जन्म लेकर तपके प्रभावसे पापको जीतता है । और उसी पापको अतुल्य पराक्रमवाला भेदविज्ञानी आधे क्षणहीमें भस कर देता है॥१८॥
अज्ञानपूर्विका चेष्टा यतेर्यस्यान भूतले।
स बनात्यात्मनात्मानं कुर्वन्नपि तपश्चिरं ॥१९॥ अर्थ-जिस यतिकी इस पृथिवीपर अज्ञानपूर्वक चेष्टा (क्रिया) है वह चिरकालसे तपस्या करता हुआ भी अपने आत्माको अपनेही कृत्यसे बांध लेता है। क्योंकि अज्ञानपूर्वक तप वन्धहीका कारण है ॥ १९॥
ज्ञानपूर्वमनुष्ठानं निःशेषं यस्य योगिनः ।
न तस्य बन्धमायाति कर्म कस्मिन्नपि क्षणे ॥२०॥ अर्थ-जिस मुनिके समस्त आचरण ज्ञानपूर्वक होते हैं इसको किसी कालमें मी कर्मबंध नहीं होता है । भावार्थ-अज्ञानीको तो बहुत काल तिष्ठनेवाला कर्मबंध होता है, किन्तु ज्ञानीको कभी नहीं होता है ॥ २० ॥
यत्र बालश्चरत्यस्मिन्पथि तत्रैव पण्डितः
बालः खमपि बन्नाति मुच्यते तत्त्वविद्भुवम् ॥ २१ ॥ अर्थ-जिस मार्ग में अज्ञानी चलते हैं उसी मार्गमें विद्वज्जन चलते हैं, परन्तु अज्ञानी तो अपने आत्माको बांध लेता है और तत्त्वज्ञानी बन्धरहित हो जाता है । यह ज्ञानका माहात्म्य है ।। २१॥
मालिनी। दुरिततिमिरहसं मोक्षलक्ष्मीसरोजं
मदनभुजगमनं चित्तमातङ्गसिंह ।