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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम्
तसे पांच प्रकारके भेद कहे गये । क्योंकि मति श्रुत अवधि और मनःपर्यय ये चार ज्ञान कर्मोंके क्षयोपशमसे होते हैं और केवल ज्ञान आत्माका निजखभाव कर्मोंके सर्वथा क्षय होनेसे प्रगट होता है । यह ज्ञान अविनाशी और जैसाका तैसा रहता है और इसको फिर कभी कर्ममल नहीं लगता है ॥
है, जो घातिया अनन्त है, सदा
अगम्यं यन्मृगाङ्कस्य दुर्भेद्यं यद्रवेरपि ।
तदुर्बोधोद्धतं ध्वान्तं ज्ञानभेद्यं प्रकीर्तितम् ॥ ११ ॥ अर्थ – जिस मिथ्याज्ञानरूप उत्कट अन्धकारको चन्द्रमा तथा सूर्यभी नष्ट नहीं कर सकता ऐसा दुर्भेद्य है । वह मिथ्यात्वान्धकार ज्ञानसेही नष्ट किया जाता है । अर्थात् ज्ञानही उसको भेद सक्ता है ॥ ११ ॥
दुःखज्वलनतप्तानां संसारोग्रमरुस्थले ।
विज्ञानमेव जन्तूनां सुधाम्बुप्रीणनक्षमः ॥ १२ ॥
अर्थ - इस संसाररूपी उग्रमरुस्थल में दुःखरूप अग्निसे तपायमान जीवोंको यह सत्यार्थ ज्ञानही अमृतरूप जलसे तृप्त करनेको समर्थ है । भावार्थ- संसारके दुःख मिटानेको सम्यग्ज्ञानही समर्थ है ॥ १२ ॥
निरालोकं जगत्सर्वमज्ञानतिमिराहतम् ।
तावदास्ते उदेत्युच्चैर्न यावज्ज्ञानभास्करः ॥ १३ ॥
अर्थ -- जबतक ज्ञानरूपी सूर्यका उदय नहीं होता तभीतक यह समस्त जंगत् अज्ञानरूपी अन्धकारसे आच्छादित है । अर्थात् ज्ञानरूपी सूर्यका उदय होतेही अज्ञानरूपी अन्धकार नष्ट हो जाता है ॥ १३ ॥
बोध एव दृढः पाशो हृषीकमृगबन्धने ।
गारुडश्च महामन्त्रः चित्तभोगिविनिग्रहे ॥ १४ ॥
अर्थ - इन्द्रियरूपी मृगोंको बांधनेके लिये ज्ञानही एक दृढफांसी है, अर्थात् ज्ञानके विना इन्द्रियां वश नहीं होतीं, तथा चित्तरूपी सर्पका निग्रह करनेके लिये ज्ञानही एक गारुड महामन्त्र है । अर्थात् मन भी ज्ञानहीसे वशीभूत होता है ॥ १४ ॥
निशातं विद्धि निस्त्रिंशं भवारातिनिपातने । तृतीयमथवा नेत्रं विश्वतत्त्वप्रकाशने ॥ १५ ॥
अर्थ - ज्ञानही तो संसाररूप शत्रुको निपात ( नष्ट) करनेके लिये तीक्ष्ण खन है
और ज्ञानही समस्त तत्त्वोंको प्रकाशित करनेके लिये तीसरा नेत्र है ॥ १५ ॥ क्षीणतन्द्रा जितक्लेशा वीतसङ्गाः स्थिराशयाः । तस्यार्थेऽमी तपस्यन्ति योगिनः कृतनिश्चयाः ॥ १६ ॥