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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् खरूप है । आकाशद्रव्य अनन्तानन्तप्रदेशी है । उसके मध्यमें असंख्यातप्रदेशी लोकाकाश है । उसमें जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और काल ये अनन्तद्रव्य हैं । उनके तीन काल संबंधी अनन्त २ भिन्न २ पर्याय हैं । उन सबको युगपत् ( एक समयमें) जाननेवाला पूर्णज्ञान आत्माका निश्चय खभाव है । कर्मके निमित्तसे उसके भेद हो गये हैं ॥१॥ . ध्रौव्यादिकलित वैर्निर्भर कलितं जगत् ।।
चिन्तितं युगपद्यत्र तज्ज्ञानं योगिलोचनम् ॥ २॥ अर्थ-उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य-खभावी पदार्थोंसे अतिशय भरा हुआ यह जगत् जिस ज्ञानमें युगपत् प्रतिविम्बित हो वही ज्ञान योगीश्वरोंके नेत्रके समान है भावार्थअन्यमतावलम्बियोंमें योगिप्रत्यक्ष ज्ञान मानते हैं, वह यथार्थ नहीं है । उक्त ज्ञानही सत्यार्थ है ॥२॥ अब कर्मके निमित्तसे जो ज्ञानके भेद हो गये हैं, उनका वर्णन करते हैं,
मतिश्रुतावधिज्ञानं मनःपर्ययकेवलम् ।
तदित्थं सान्वयैर्भेदैः पञ्चधेति प्रकल्पितम् ॥ ३॥ अर्थ-यह ज्ञान मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय और केवल इन भेदोंसे पांच प्रकारका कल्पना किया गया है। भावार्थ-कर्मके निमित्तसे यह पांच प्रकारकी कल्पना की गई है। परमार्थसे ज्ञानमात्रमें कोई भेद नहीं है। केवल प्रत्यक्ष और परोक्षताका भेद मात्र है ॥ ३ ॥
अवग्रहादिभिर्भदैववाद्यन्तर्भवैः परैः।
षत्रिंशत्रिशतं प्राहुर्मतिज्ञानं प्रपञ्चतः ॥४॥ अर्थ-अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा तथा बहु, बहुविधि, आदि वारह भेदोंसे विस्तार करनेसे मतिज्ञानके तीनसै छत्तीस भेद होते हैं । सो तत्त्वार्थसूत्रकी टीकाओंसे जानना चाहिये ॥ ४ ॥
प्रसृतं बहुधाऽनेकैरङ्गपूर्वैः प्रकीर्णकैः ।
स्याच्छन्दलाञ्छितं तद्धि श्रुतज्ञानमनेकधा ॥५॥ अर्थ--ग्यारह अंग, चौदह पूर्व और चौदह प्रकीर्णक इनसे बहुत प्रकारसे विस्तृत, स्यात् शब्दसे चिह्नित श्रुतज्ञान अनेक प्रकारका है । भावार्थ-शास्त्र सुननेके निमित्तसे उत्पन्न हुआ ज्ञान मुख्यतासे श्रुतज्ञान कहा जाता है. वह शास्त्र अंगपूर्वादिकसे अनेक भेदरूप है इस कारण ज्ञानभी अनेक प्रकारके हैं । और 'स्यात्' शब्द 'किसी प्रकारको' कहते हैं सो इस शब्दसे वह श्रुतज्ञान चिह्नित है । जिससे इसमें किसी प्रकारकी बाधा नहीं आती, इस कारण जो निर्वाध है वही श्रुतज्ञान है ॥ ५ ॥