________________
ज्ञानार्णवः ।
अब इस सम्यग्दर्शनके प्रकरणको पूर्ण करते हुए कहते हैं
मालिनी ।
अतुल सुखनिधानं सर्वकल्याणवीजं जननजलधिपोतं भव्य सत्त्वैकपात्रम् | दुरिततरुकुठारं पुण्यतीर्थप्रधानं
पिबत जितविपक्षं दर्शनाख्यं सुधाम्बुम् ॥ ५३ ॥ . अर्थ – आचार्य महाराजं कहते हैं कि हे भव्य जीवो ! तुम सम्यग्दर्शन नामक अमृतका पान करो । क्योंकि यह सम्यग्दर्शन अतुल्यसुखका निधान ( खजाना ) है । समस्त कल्याणोंका बीज अर्थात् कारण है । संसाररूपी समुद्रसे तारनेके लिये जहाज है । तथा इसको धारण करनेवाले एक मात्र पात्र भव्य जीवही हैं | अभव्य जीव इसके पात्र कदापि नहीं हो सकते । और यह सम्यग्दर्शन पापरूपी वृक्षको काटनेके लिये कुठार ( कुल्हाड़े ) के समान है, तथा पवित्र तीर्थोंमें यही प्रधान है, अर्थात् मुख्य है । और जीत लिया है अपने विपक्ष अर्थात् मिथ्यात्वरूपी शत्रुको जिनसे ऐसा यह सम्यग्दर्शन है. अतः भव्यजीवोंको सबसे पहिले इसेही अंगीकार करना चाहिये ॥ ५९ ॥
1
छप्पय ।
सप्त तत्त्व पट् द्रव्य, पदारथ नव मुनि भाखे । अस्तिकायसम्यक्त्व, विषय नीके मन राखे ॥ तिनको सांचे जान, आप परभेद पिछानहु । उपादेय है आप आन सब हेय वखानहु || यह सरधा सांची धारकै, मिथ्याभाव निवारिये । तब सम्यग्दर्शन पायकै, स्थिर है मोक्ष पधारिये ॥ १ ॥ इति श्रीज्ञानार्णवे योगप्रदीपाधिकारे शुभचन्द्राचार्यविरचिते सम्यग्दर्शनप्रकरणम् ॥ ६ ॥
अथ सप्तमं प्रकरणम् ।
अव सम्यग्ज्ञानका वर्णन करते हैं
१०३
त्रिकालगोचरानन्तगुणपर्यायसंयुताः ।
यत्र भावाः स्फुरन्त्युच्चैस्तज्ज्ञानं ज्ञानिनां मतम् ॥ १ ॥ अर्थ - जिसमें तीनकालके गोचर अनन्तगुणपर्यायसंयुक्त पदार्थ अतिशयताके साथ प्रतिभासित होते हैं उसको ज्ञानी पुरुषोंने ज्ञान कहा है । यह सामान्यतासे पूर्ण ज्ञानका