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ज्ञानार्णवः ।
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लोभ रूप परिणामोंको कपाय और मनवचनकायके निमित्तसे आत्माके चंचलरूप होनेको योग कहते हैं. इस प्रकार बन्धके हेतु कहे हैं ॥ ४७ ॥ उत्कर्षेणापकर्षेण स्थितिर्या कर्मणां मता । स्थितिबन्धः स विज्ञेय इतरस्तत्फलोदयः ॥ ४८ ॥
अर्थ -- जो उत्कृष्ट, जघन्य तथा मध्यके भेदोंरूप बढ़ती घटती कर्मोकी स्थिति ( कालकी मर्यादा ) कही गई है, उसे स्थितिबन्ध और कर्मके फलके उदय होनेको इतर अर्थात् अनुभागबंध जानना चाहिये ॥ ४८ ॥
परस्परप्रदेशानुप्रवेशो जीवकर्मणोः ।
यः संश्लेषः स निर्दिष्टो बन्धो विध्वस्तबन्धनैः ॥ ४९ ॥
अर्थ - जो जीव और कर्म इन दोनोंके प्रदेशोंका परस्पर अनुप्रवेश कहिये एकक्षेत्रावगाह होनेसे संबन्ध होता है, उसे बन्धरहित सर्वज्ञदेवने प्रदेशवन्ध कहा है । इस प्रकार बंधतत्त्वका वर्णन किया है ॥ ४९ ॥
प्रागेव भावनात निर्जरात्रवसंवराः ।
afaar: कीर्तयिष्यामि मोक्षमार्ग सहेतुकम् ॥ ५० ॥
अर्थ - निर्जरा, आस्रव और संवरका वर्णन पहिले द्वादश भावनाके प्रकरण में कर आये हैं इस कारण यहां नहीं किया । आगे मोक्षतत्त्वका वर्णन हेतुसहित करते हैं ॥ ५० ॥ एवं द्रव्याणि तत्त्वानि पदार्थान् कायसंयुतान् ।
यः श्रन्ते वसिद्धान्तात्स स्यान्मुक्तः स्वयं वरः ॥ ५१ ॥
अर्थ — इस प्रकार छह द्रव्य, सप्त तत्त्व, नव पदार्थ, वा पंचास्तिकायका अपने सिद्धातसे जो आत्मा श्रद्धान करता है वह मुक्तिका स्वयंवर होता है । अर्थात् मुक्तिरूपी कन्या उसे खयं वरण करती है । तात्पर्य यह कि उसे मुक्ति प्राप्त होती है ॥ ५१ ॥ इति जीवादयो भावा दिङ्मात्रेणात्र वर्णिताः । विशेषरुचिभिः सम्यग्विज्ञेयाः परमागमात् ॥ ५२ ॥
अर्थ- इस प्रकार जीवादि पदार्थोंका दिग्दर्शनमात्र इस ग्रंथ में किया गया. विशेष जाननेकी रुचि रखनेवाले पुरुषोंको परमागमसे अर्थात् तत्वार्थ सूत्र की टीका तथा गोमठसारादि अन्य शास्त्रोंसे जानना चाहिये ॥ ५२ ॥
सद्दर्शनमहारनं विश्वलोकैकभूषणम् । मुक्तिपर्यन्तकल्याणदानदक्षं प्रकीर्तितम् ॥ ५३ ॥
अर्थ - यह सम्यग्दर्शन महारल समस्त लोकका आभूषण है और मोक्ष होनेपर्यन्त आत्माको कल्याण देनेवालोंमें चतुर है ॥ ५३ ॥