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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् ज्ञान, चारित्रसहित ध्यान करना कहा है । स्याद्वादन्यायसे सब संभवित होता है। वस्तुखरूप अनन्तधर्मी है, ऐसा प्रमाणसिद्ध है । इस कारण जैनियोंका कहना सर्वथा 'निराबाध है। और एकान्तीका कहना सर्वथा वाधासहित है। ऐसा निःसंदेह जान- . कर श्रद्धान करना उचित है ॥ ४२ ॥
धर्माधमैकजीवानां प्रदेशा गणनातिगा।
कियन्तोऽपि न कालस्य व्योम्नः पर्यन्तवर्जिताः ॥ ४३ ॥ अर्थ-धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य और एक जीवद्रव्यके प्रदेश गणनासे अतीत अर्थात् असंख्यात हैं और कालद्रव्यके एकही अणु मात्र प्रदेश है । इस कारण कालके कितने प्रदेश हैं, ऐसी कथनीही नहीं है । और आकाशके अन्तवर्जित अनन्तप्रदेश हैं ॥ १३ ॥
एकादयः प्रदेशाः स्युः पुद्गलानां यथायथम् ।
संख्यातीताश्च संख्येया अनन्ता योगिकल्पिताः ॥४४॥ अर्थ-योगीश्वरोंने पुद्गलद्रव्यके एक प्रदेशको आदि ले जैसे हैं तैसे संख्यात असंख्यात और अनन्त कहे हैं । भावार्थ-पुद्गलद्रव्य एक परमाणु है वह मिलकर दो परमाणुसे लेकर संख्यात परमाणुतकका स्कन्ध होता है तथा असंख्यात परमाणु मिलकर . असंख्यात परमाणुका स्कन्ध होता है और अनन्त परमाणुओंका स्कन्ध भी होता है । इस कारण पुद्गलस्कन्धके संख्यात असंख्यात वा अनन्त प्रदेश कहे हैं ॥ १४ ॥
मूर्ती व्यवनपर्यायो वाग्गम्योऽनश्वरः स्थिरः।
सूक्ष्मः प्रतिक्षणध्वंसी पर्यायश्चार्थसंज्ञिकः॥४५॥ अर्थ-व्यञ्जनपर्याय मूर्तिक है, वचनके गोचर है, अनश्वर है स्थिर है । और अर्थपर्याय सूक्ष्म है तथा क्षणविध्वंसी है ॥ ४५ ॥ इस प्रकार अजीवतत्त्वका वर्णन किया. अब वन्ध तत्त्वका वर्णन करते हैं:
प्रकृत्यादिविकल्पेन ज्ञेयो बन्धश्चतुर्विधः ।
ज्ञानावृत्यादिभेदेन सोऽष्टधा प्रथमः स्मृतः ॥ ४६॥ ___ अर्थ-प्रकृत्यादि भेदसे वन्ध चार प्रकारका है। उनमेंसे प्रथम प्रकृति बन्ध है, जो कि ज्ञानावरण दर्शनावरणादि भेदसे आठ प्रकारका है ॥ ४६॥
मिथ्यात्वाविरती योगः कषायाश्च यथाक्रमात् ।
प्रमादैः सह पञ्चते विज्ञेया बन्धहेतवः ॥४७॥ अर्थ-मिथ्यात्व, अविरति, योग कपाय और प्रमाद यथाक्रमसे ये पांच वन्धके हेतु अर्थात् कारण जानने चाहिये । अतत्वश्रद्धानको मिथ्यात्व, अत्यागरूप परिणामोंको अविरति, निश्चय व्यवहार चारित्रमें असावधानरूप परिणामोंको प्रमाद, क्रोध मान माया