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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् दत्ते स्थितिं प्रपन्नानां जीवादीनामयं स्थिति ।
अधर्मः सहकारित्वाद्यथा छायाऽध्यवर्तिनाम् ॥ ३४॥ . . अर्थ-अधर्म द्रव्य स्थितिको प्राप्त हुए जीवपुद्गलोंकी स्थिति कराने में सहकारी है। जैसे मार्गमें चलते हुए पथिकोंको बैठनेके लिये छाया सहकारी है, उसी प्रकार अधर्म द्रव्य भी जीवोंके ठहरानेमें सहकारी है । प्रेरक नहीं है ॥ ३४ ॥
अवकाशप्रदं व्योम सर्वगं खप्रतिष्ठितम् ।
लोकालोकविकल्पेन तस्य लक्ष्म प्रकीर्तितम् ॥ ३५ ॥ अर्थ-आकाशद्रव्य अन्य पांचद्रव्योंको अवकाश देनेवाला और सर्वव्यापी है । तथा खप्रतिष्ठित है । अर्थात् अपने आपहीके आधार है, अन्य कोई आधार ( आश्रय ) नहीं है। यह लोक अलोकके भेदसे दो प्रकारका है ॥ ३५॥
लोकाकाशप्रदेशेषु ये भिन्ना अणवः स्थिताः। .
परिवाय भावानां मुख्यकालः स वर्णितः ॥ ३६॥ अर्थ-लोकाकाशके प्रदेशोंमें जो कालके भिन्न २ अणु द्रव्योंका परिवर्तन करनेके . लिये स्थित हैं उन्हे मुख्य काल अर्थात् निश्चयकाल कहते हैं ॥ ३६ ॥
समयादिकृतं यस्य मानं ज्योतिर्गणाश्रितम् ।
व्यवहाराभिधः कालः स कालज्ञैः प्रपश्चितः ॥ ३७॥ अर्थ-जिस कालका परिमाण ज्योतिषी देवोंके समूहके गमनागमनके आश्रयसे समय आदि भेदरूप किया गया है, उसे कालके जाननेवाले विद्वानोंने व्यवहारकाल कहा है ॥ ३७॥
यदमी परिवर्तन्ते पदार्थो विश्ववर्तिनः।
नवजीर्णादिरूपेण तत्कालस्यैव चेष्टितम् ॥ ३८॥ अर्थ-लोकमें रहनेवाले ए समस्त पदार्थ जो नयेसे पुरानी अवस्थाको धारण करते हैं, सो सब कालकी चेष्टासे ही करते हैं । अर्थात् समस्त द्रव्योंके परिणमनेको कालकी वर्तना ही निमित्त है ॥ ३८॥
भाविनो वर्तमानत्वं वर्तमानास्त्वतीतताम् ।
पदार्थाः प्रतिपद्यन्ते कालकेलिकर्थिताः ॥ ३९ ॥ अर्थ-पदार्थ कालहीकी लीलासे (वर्तना) से एक अवस्थासे अन्य अवस्थाको प्राप्त होते हैं । अर्थात् जो आगामी अवस्था होनेवाली है वह तो वर्तमानताको प्राप्त होती है और वर्तमान है वह अतीतपनको प्राप्त होती है । इस प्रकार समय समय अवस्था पलटती रहती है ॥ ३९ ॥