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ज्ञानार्णवः ।
९७ त्मक कहा गया है, इस कारण जो उत्पाद, व्यय, प्रौव्य-रूप होता है, वही पर्यायरूप भी होता है ॥ २८॥
अणुस्कन्धविभेदेन भिन्नाः स्युः पुद्गला द्विधा ।
मूर्ती वर्णरसस्पर्शगुणोपेताश्च रूपिणः ॥ २९ ॥ अर्थ-अणुस्कन्ध भेदसे यहां पुद्गल दो प्रकारका है और वर्ण, रस, स्पर्श, गुण सहित होनेसे रूपी (मूर्त) हैं ।। २९ ॥
किन्त्वेकं पुद्गलद्रव्यं पडिकल्पं बुधैर्मतम् ।।
स्थूलास्थूलादिभेदेन सूक्ष्मासूक्ष्मेन च क्रमात् ॥ ३०॥ . अर्थ-किन्तु एक एक पुद्गल द्रव्यको विद्वानोंने स्थूल और सूक्ष्मासूक्ष्मादि भेदोंके क्रमसे छह प्रकारका कहा है । यथाः-स्थूलास्थूल, तो पृथिवी पर्वतादिक हैं । स्थूलजल दुग्धादिक तरल पदार्थ हैं । स्थूलसूक्ष्म-छाया आतपादि नेत्रइन्द्रियगोचर हैं । सूक्ष्मस्थूल-नेत्रके विना अन्य चार इन्द्रियोंसे ग्रहणमें आनेवाले शब्द गन्धादिक हैं। सूक्ष्म-कर्मवर्गणा है और सूक्ष्मसूक्ष्म-परमाणु हैं । इस प्रकार पुद्गलके छह भेद हैं ॥ ३०॥
प्रत्येकमेकद्रव्याणि धर्मादीनि यथायथम् ।
आकाशान्तान्यमूर्तानि निष्क्रियाणि स्थिराणि च ॥ ३१ ॥ अर्थ-धर्म, अधर्म, आकाश, ये तीन द्रव्य भिन्न २ एक एक द्रव्य हैं और तीनोंही अमूर्तिक, निष्क्रिय और स्थिर हैं ॥ ३१ ॥
सलोकगगनव्यापी धर्मः स्याद्गतिलक्षणः। .
तावन्मानोऽप्यधर्मोऽयं स्थितिलक्ष्मः प्रकीर्तितः ॥ ३२ ॥ अर्थ-धर्मद्रव्य लोकाकाशमें व्यापक है और गतिमें सहकारी होना उसका लक्षण वा खभाव है । और अधर्म द्रव्यमी लोकाकाशव्यापी है, तथा स्थितिसहकारी उसका खभाव है ॥ ३२॥
स्वयं गन्तुं प्रवृत्तेपु जीवाजीवेषु सर्वदा।
धर्मोऽयं सहकारी स्याजलं यादोऽङ्गिनामिव ॥ ३३ ॥ अर्थ-यह धर्मद्रव्य जीवपुद्गलका प्रेरक सहकारी नहीं है, किन्तु जीवपुद्गल खयम् गमन करनेमें प्रवर्ते तो यह सर्वकाल सहकारी (सहायक ) है । जैसे जलमें रहनेवाले मत्स्यादिकको जल सहकारी है । जल प्रेरण करके मत्स्यादिक जलचरोंको नहीं चलाता किन्तु वे चलते है तो उनका सहायक होता है ॥ ३३ ॥