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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । अर्थ-जिसकी आत्मामें अपना प्रवर्तन है, परद्रव्यमें नहीं है और बाह्यपरिग्रहके
त्यागसे तथा अन्तरंगविज्ञानज्योतिके प्रकाश होनेसे जिसका महामोहरूप निद्राका उत्कर्ष नष्ट होगया है और जिसको स्वरूपका निश्चय होनेसे यह जगत् शुन्यवत् वा जड़वत् प्रतिभासता है, ऐसे श्रीज्ञानसमुद्र मुनिके चरणकमलकी लक्ष्मी (शोभा । तुमको मोक्षपद प्रदान करै. ऐसा आशीर्वादात्मक उपदेश है ॥२७॥
___मन्दाक्रान्ता। आत्मायत्तं विषयविरसं तत्वचिन्तावलीनं निर्व्यापार वहितनिरतं निर्वृतानन्दपूर्ण । ज्ञानारूढं शमयमतपोध्यानलब्धावकाशं
कृत्वाऽऽत्मानं कलय सुमते दिव्यबोधाधिपत्यम् ॥ २८ ॥ अर्थ-हे सुबुद्धि ! अपनेको प्रथम तो आत्मायत्त कहिये पराधीनतासे छुड़ाकर खाधीन कर । दूसरे-इंद्रियोंके विषयोंसे विरक्त कर । तीसरे-तत्वचिन्तामें मग्न (लीन) कर । चौथे-सांसारिक व्यापारसे रहित निश्चल कर । पांचवें-अपने हितमें लगा। छठे-निवृत अर्थात् क्षोभरहित आनंदसे परिपूर्ण कर । सातवें-ज्ञानारूढ कर । आठवेंशम यम दम तपमें अवकाश मिलै ऐसा करके फिर दिव्यबोध कहिये केवल ज्ञानके अधिपतिपनेको प्राप्त कर । भावार्थ-उपर्युक्त आठ कार्योसे केवलज्ञानकी प्राप्ति होती है ॥ २८॥ अब इस अधिकारको पूर्ण करते हुए कहते हैं
शार्दूलविक्रीडितम् । दृश्यन्ते भुवि किं न ते कृतधियः संख्याव्यतीताश्चिरम्
ये लीलाः परमेष्ठिनः प्रतिदिनं तन्वन्ति वाग्भिः परां। तं साक्षानुभूय नित्यपरमानन्दाम्बुराशिं पुन-. । ये जन्मभ्रममुत्सृजन्ति पुरुषा धन्यास्तु ते दुर्लभाः ॥ २९ ॥ अर्थ-इस पृथिवीपर परमेष्ठीकी नित्यप्रति केवल वचनोंसे बहुत कालपर्यन्त लीलास्तवनको विस्तृत करनेवाले कृतवुद्धि क्या गणनासे अतीत नहीं हैं ? अपि तु असंख्येय देखनेमें आते हैं । परन्तु नित्यपरमानन्दामृतकी राशिरूप उस परमेष्ठीको साक्षात् अनुभवगोचर कर संसारके श्रमको दूर करते हैं, ऐसे पुरुष दुर्लभ हैं. और ऐसे ही पुरुष धन्य हैं ॥ २९॥
इस प्रकार ध्यान करनेवाले योगीश्वरोंकी प्रशंसा की गई। यद्यपि इस पंचम कालमें ऐसे योगीश्वर देखनेमें नहीं आते, तो भी उनके गुणानुवाद सुनकर स्मरण करनेसे भव्यजीचोंका मन पवित्र होता है और अन्य कुलिंगियोंकी श्रद्धारूप मिथ्यात्वका नाश होता है ।।