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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम्
अर्थ - जिन प्रशान्तात्मा मुनि महाराजाओंके विन्ध्याचल पर्वत नगर है, पर्वतकी गुंफायें वसतिका (गृह) हैं, पर्वतकी शिला शय्यासमान हैं, चन्द्रमाकी किरणें दीपकवत् हैं, मृग सहचारी हैं, सर्वभूतमैत्री (दया) कुलीन स्त्री है, पीनेका जल विज्ञान और तप उत्तम भोजन है, वेही धन्य हैं। ऐसे मुनिराज हमको संसाररूप कर्दमसे निकलने के मार्गका उपदेश देनेवाले हों ॥ २१ ॥
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स्रग्धरा ।
रुद्धे प्राणप्रचारे वपुषि नियमिते संवृतेऽक्षप्रपञ्चे नेत्रपदे निरस्ते प्रलयमुपगतेऽन्तर्विकल्पेन्द्रजाले भिन्ने मोहान्धकारे प्रसरति महसि कापि विश्वप्रदीपे
धन्यो ध्यानावलम्बी कलयति परमानन्दसिन्धुप्रवेशं ॥ २२ ॥ अर्थ - श्वासोच्छ्वासके रुकते हुए, शरीरके निश्चल होतेहुए, इन्द्रियोंके प्रचारका संवरण होतेहुए, नेत्रोंकी चलनक्रियाके रहित होते हुए, समस्त विकल्परूप इन्द्रजालका प्रलय होते हुए, मोहान्धकारके दूर होते हुए, और समस्त वस्तुओंको प्रकाश करनेवाले तेजःपुंजको अपने हृदयमें विस्तरते हुए जो धन्य मुनि ध्यानावलंबी होते हैं वही परमानन्दरूपी समुद्रमें प्रवेश करनेका अभ्यास करते हैं ॥ २२ ॥ शिखरिणी ।
अहेयोपादेयं त्रिभुवनमपीदं व्यवसितः शुभं वा पापं वा इयमपि दहत्कर्म महसा । निजानन्दावादव्यवधिविधुरीभूतविषयः
प्रतीत्योच्चैः कश्चिद्विगलितविकल्पं विहरति ॥ २३ ॥
अर्थ—अपने स्वाभाविक आनंद के खादसे दूर हैं इन्द्रियविषय जिसके ऐसा कोई मुनि अपने तेजसे शुभाशुभ कर्मोंका दहन करता हुआ, भले प्रकार प्रतीतिगोचर करके इस अहेयोपादेयरूप त्रिभुवनमें विकल्परहित भ्रमण करता है । भावार्थ - ध्यानस्थ हो तव तो निश्चल अवस्था हैही; परन्तुं विहार करते हुएभी निश्चलके समान है, अर्थात् जगतमें जिसके त्याग करने वा ग्रहण करने योग्य कुछभी नहीं है, और विषयोंकी वांछा. नहीं है वही निर्विकल्परूप होकर कर्मोकी निर्जरा करता हुआ विचरता है ॥ २३ ॥ शार्दूलविक्रीडितम् । दुःप्रज्ञा वल्लुप्तवस्तुनिचया विज्ञानशून्याशयाः विद्यन्ते प्रतिमन्दिरं निजनिजखार्थोद्यता देहिनः । आनन्दामृतसिन्धुशीकरचयैर्निर्वाप्य जन्मज्वरं
ये मुक्तेर्वदनेन्दुवीक्षणपरास्ते सन्ति द्वित्रा यदि ॥ २४ ॥