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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम्
अत्युग्रतपसाऽऽत्मानं पीडयन्तोऽपि निर्दयम् जगद्विध्यापयन्त्युच्चैर्ये मोहदहनक्षतम् ॥ १० ॥ -
अर्थ- जो मुनि अपने आत्माको अति तीव्र तपसे निर्दयीके समान पीढा करते हैं तो भी मोहरूपी अग्निसे जलते हुए जगतको अतिशयताके साथ वुझाते हैं अर्थात् शान्त करते हैं; तथा -- ॥ १० ॥
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स्वभावजनिरातङ्कनिर्भरानन्दनन्दिताः ।
तृष्णार्चिः शान्तये धन्या ये कालजलदोद्गमाः ॥ ११ ॥ अर्थ – जो धन्य मुनि तृष्णारूपी अग्निकी ज्वालाको शान्त करनेके लिये अकालमें (ग्रीष्मकालमें ) खभावसे उत्पन्न, दाहरहित, पूर्ण आनन्दसे आनन्दरूप मेघके उदयके समान हैं, तथा ॥ ११ ॥
अशेषसंग संन्यासवशाजितमनोद्विजाः । विषयोद्दाममातङ्गघटासंघट्टघातकाः ॥ १२ ॥
अर्थ - जो मुनि समस्त परिग्रहके त्यागके कारण मनरूप चंचल पक्षीको जीतनेवाले हैं, तथा विषयरूपी मदोन्मत्त हस्तियोंके संघट्टके ( समूहके ) घातक हैं, तथा -- ॥ १२ ॥ वाक्पथातीतमाहात्म्या विश्वविद्याविशारदाः । शरीराहारसंसारकाम भोगेषु निःस्पृहाः ॥ १३ ॥
अर्थ — जिनका वचनपथसे अगोचर माहात्म्य है, जो समस्त विद्याओं में विशारद हैं और शरीर आहार- संसार - काम-भोगों में निस्पृह ( वांछारहित ) हैं, तथा ॥ १३॥ विशुद्धबोध पीयूषपानपुण्यीकृताशयाः ।
स्थिरेतर जगज्जन्तुकरुणावारिवार्द्धयः ॥ १४ ॥
अर्थ — जिनका चित्त निर्मल ज्ञानरूप अमृतके पानसे पवित्र है और जो स्थावर
त्रस भेदयुक्त जगतके जीवोंको करुणारूपी जलके समुद्र हैं, तथा ॥ १४ ॥ वर्णाचल 'इवाकम्पा ज्योतिःपथ इवामलाः । समीर इव निःसङ्गा निर्ममत्वं समाश्रिताः ॥ १५ ॥
अर्थ ——मेरुपर्वतके समान अचल हैं, आकाशवत् निर्मल हैं, पचनके समान निःसङ्ग हैं और निर्ममताको जिन्होंने आश्रय दिया है; तथा -- ॥ १५ ॥ हितोपदेशपर्जन्यैर्भ व्यसारङ्गतर्पकाः ।
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निरपेक्षा शरीरेsपि सापेक्षाः सिद्धिसङ्गमे ॥ १६ ॥
अर्थ — वे मुनि हितोपदेशरूप शब्दायमान मेघोंसे भव्यजीवरूपी चातक वा मयूरोंको तृप्त करनेवाले हैं, तथा शरीरमें निरपेक्ष हैं, तो भी मुक्तिके संगम करनेमें सापेक्ष हैं ॥ १६ ॥
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