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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम्
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स्वाध्यायसे रहित, तथा रागद्वेष मोहादि पिशाचोंसे वञ्चित हैं, एवम् जो मुनिपनके गुण नष्ट करनेसे अपना मुँह काला करनेवाले, विपयोंसे आकर्षित, मदोंसे प्रसन्न, शंका संदेह शल्यभयादिकसे पकड़े गये हैं, ऐसे रंक पुरुष न ध्यान करनेको समर्थ हैं, न भेदज्ञान करने में समर्थ हैं और न तपही कर सक्ते हैं ॥ ६२ ॥
इस प्रकार ध्याताके गुण दोष वर्णन किये । जिसमें गृहस्थ, मिथ्यादृष्टी, अन्यमती, भेषी, पाषंडियोंके तथा जो जैनके यति (साधु) कहाकर आचारसे भ्रष्ट हैं, वा जो यतिपनेको केवल आजीविकाके निमित्त खोनेवाले हैं, उनके ध्यान करनेकी योग्यताका निषेध किया है ।
सोरठा ।
जो गृहत्यागी होय, सम्यग्ररत्नन्त्रयविना । ध्यानयोग्य नहिं सोय, गृहवासीकी का कथा ॥ १ ॥ इति श्रीज्ञानार्णवे योगप्रदीपाधिकारे शुभचन्द्राचार्यविरचिते चतुर्थः सर्गः ॥ ४ ॥
अथ पञ्चमः सर्गः ।
आगे ध्याता योगीश्वरोंकी प्रशंसा करते हैं,
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अथ निर्णीततत्त्वार्था धन्याः संविग्नमानसाः ।
कीर्त्यते यमिनो जन्मसंभूतसुखनिःस्पृहाः ॥ १ ॥
अर्थ — अथानन्तर जो संयमी मुनि तत्त्वार्थका ( वस्तुका ) यथार्थ स्वरूप जानते हैं,
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मनमें संवेगरूप हैं, मोक्ष तथा उसके मार्ग में अनुरागी हैं, और संसारजनित मुखोंमें निस्पृह
( बांछारहित ) हैं वे मुनि धन्य हैं। उनका कीर्त्तन वा प्रशंसा की जाती है ॥ १ ॥ भवभ्रमणनिर्विण्णा भावशुद्धिं समाश्रिताः ।
सन्ति केचिच्च भूपृष्ठे योगिनः पुण्यचेष्टिताः ॥ २ ॥
अर्थ - इस पृथिवीतलपर अनेक योगीश्वर संसारके चक्रसे विरक्त हैं, भावोंकी शुद्धतासहित हैं, तथा पवित्र चेष्टावाले हैं। यहां कोई यह पूछे कि, "इस कालमें तो ऐसे कोई साधु दीख नहीं पड़ते ?" तो इसका यह उत्तर है कि, यह ग्रंथ जिस समय रचा गया था, उस समय ऐसे अनेक योगीश्वर थे. और अब भी किसी दूर क्षेत्रमें हों क्या आश्चर्य है ?
२॥
विरज्य कामभोगेषु विमुच्य वपुषि स्पृहाम् ।
यस्य चित्तं स्थिरीभूतं स हि ध्याता प्रशस्यते ॥ ३ ॥