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ज्ञानार्णवः ।
तथा
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इत्थं न किंचिदपि साधनसाध्यमस्ति स्वप्नेन्द्रजालसदृशं परमार्थशून्यम् । तस्मादनन्तमजरं परमं विकाशि
तद्ब्रह्म वान्च्छत जना यदि चेतनास्ति” ॥ २ ॥ अर्थ - उक्त प्रकारसे जगतमें कुछभी साधने योग्य साध्य ( कार्य ) नहीं है । क्योंकि जगतका कार्य खनके समान अथवा इन्द्रजालके समान क्षणविनश्वर और परमार्थ से शून्य है । इस कारण आचार्य महाराज कहते हैं कि, हे प्राणी जन हो । यदि तुममें चेतना (बुद्धि) है तो ऐसे परम उत्कृष्ट प्रकाशरूप ज्ञानानंद स्वरूप अपने आत्माकी वांछा करो, जो अन्त और जरारहित है. और अन्य समस्त प्रकारकी अभिलाषाओंका त्याग कर दो” ॥ २ ॥
शार्दूलविक्रीडितम् ।
किं ते सन्ति न कोटिशोऽपि सुधियः स्फारैर्वचोभिः परम् ये वार्ता प्रथयन्त्यय महसां राशेः परब्रह्मणः । तत्रानन्दसुधासरखति पुनर्निर्मज्य मुञ्चन्ति ये
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सन्तापं भवसम्भवं त्रिचतुरास्ते सन्ति वा नात्र वा ॥ ६१ ॥ अर्थ -- आचार्य महाराज कहते हैं कि, इस जगतमें प्रचुर वचनोंसे ( व्याख्यानोंसे ) अमर्याद प्रतापकी राशिरूप परमात्माकी वार्ताको विस्तार करनेवाले करोंड़ो विद्वान् क्या नहीं होते ? अवश्य होते ही हैं ! परन्तु उस परब्रह्मस्वरूप अमृतके समुद्र में मग्न होकर संसारसे उत्पन्न हुए सन्तापको नष्ट करनेवाले जगतमें तीन वा चारही होते हैं; अथवा नहीं भी होते । भावार्थ - परमात्माकी कथनीको विस्ताररूपसे कहनेवाले तो जगतमें" अनेक विद्वान होते हैं, परन्तु परमात्मखरूपमें लीन होनेवाले विरलेही होते हैं । यहां तीन चार कहने से विरलवचन जानना चाहिये, संख्याका नियम समझलेना उचित नहीं है. क्योंकि थोड़े कहने हों, तो लौकिकमंभी ऐसेही प्रायः कहा करते हैं ॥ ६१ ॥ अब इस अधिकारको पूर्ण करते हुए सामान्यरूपसे कहते हैं,शार्दूलविक्रीडितम् ।
एते पण्डितमानिनः शमदमखाध्यायचिन्तायुताः रागादिग्रहवचिता पतिगुणप्रध्वंसतृष्णाननाः । व्याकृष्टा विषयैर्मदैः प्रमुदिताः शङ्काभिरङ्गीकृता
Tarif विवेचनं न च तपः कर्तुं वराकाः क्षमाः ॥ ६२ ॥
अर्थ – जो पंडित तो नहीं हैं, किन्तु अपनेको पंडित मानते हैं, और शम, दम,