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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् दीक्षाको जीवनका उपाय बनाते हैं और उसके द्वारा धनोपार्जन करते हैं, वे अतिशय निर्दय तथा निर्लज्ज हैं ॥ ५६-५७ ॥
अविद्याश्रयणं युक्तं प्रारगृहावस्थितैर्वरम् ।
मुक्त्यङ्ग लिङ्गमादाय न श्लाघ्यं लोकदम्भनं ॥ ५८ ॥ अर्थ-जो गृहस्थावस्थामें हैं, उनको तो ऐसी अविद्याका आश्रय करना कदाचित् युक्त भी कहा जा सकता है, परन्तु मुक्तिके अंगस्वरूप मुनिके भेपको धारण करके लोकका ठगना कदापि प्रशंसनीय नहीं है । भावार्थ-साधुका भेष धारण करके कुक्रिया करनेसे तो पहिली गृहस्थावस्थाही अच्छी है। क्योंकि ऐसी अवस्थामें उक्त कार्य करनेवालोंकी कोई विशेष निंदा तो नहीं करते । यतिका भेष धारण करके निंदा नहीं करानी चाहिये, ध्यान तो दूर रहा ॥ ५८ ॥
मनुष्यत्वं समासाद्य यतित्वं च जगन्नुतम् ।
हेयमेवाशुभं कार्य विवेच्य सुहितं बुधैः ॥ ५९॥ अर्थ-मनुष्यपन पाकर उसमें फिर जगत्पूज्य मुनिदीक्षाको ग्रहण करके विद्वानोंको अपना हित विचार अशुभ कर्म अवश्यही छोड़ना चाहिये ॥ ५९ ॥
अहो विभ्रान्तचित्तानां पश्य पुंसां विचेष्टितम् । - यत्प्रपञ्चैयतित्वेऽपि नीयते जन्म निष्फलम् ॥ ६॥
अर्थ-आचार्य महाराज कहते हैं कि-देखो, भ्रमरूप चित्तवाले पुरुषोंकी चेष्टा साधुपनमेंभी पाखंड प्रपंच करके जन्मको निष्फल कर देती है ॥ ६०॥
उक्तं च ग्रन्थान्तरे
वसन्ततिलका। "भुक्ताः श्रियः सकलकामदुधास्ततः किम्
सन्तर्पिताः प्रणयिनः स्वधनैस्ततः किम् । न्यस्तं पदं शिरसि विद्विषतां ततः किम्
कल्पं स्थितं तनुभृतां तनुभिस्ततः किम् ॥१॥ अर्थ-"इस जगतमें जीवोंकी समस्त कामनाओंके पूर्ण करनेवाली लक्ष्मी हुई और वह भोगनेमें आई तो उससे क्या लाभ ? अथवा अपनी धनसम्पदादिकसे परिवार लेही मित्रोंको सन्तुष्ट किया तो क्या हुआ ? तथा शत्रुओंको जीतकर उनके मस्तकपर पांव रख दिये, तो इसमेंभी कौनसी सिद्धि हुई ? तथा इसी प्रकार शरीर बहुत वर्षपर्यन्त स्थिर रहा तो उस शरीरसे क्या लाभ ? क्योंकि ये सवही निःसार और विनश्वर