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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम्
! अर्थ - जिसका मन करुणासे व्याप्त नहीं हुआ, तथा भेदविज्ञानसे वासित नहीं हुआ, विषयभोगोंसे विरक्त नहीं हुआ वह ध्यान करनेमें समर्थ नहीं है ॥ ४५ ॥ लोकानुरञ्जकैः पापैः कर्मभिगौरवं श्रिता । अरञ्जितनिजखान्ता अक्षार्थगहने रताः ॥ ४६ ॥ अनुद्धृतमनःशल्या अकृताध्यात्मनिश्चयाः । अभिन्नभावदुलैश्या निषिद्धा ध्यानसाधने ॥ ४७ ॥
अर्थ - जो लोगों को रंजित करनेवाले पापरूप कार्योंसे गुरुताको प्राप्त हैं । नहीं रंजित हुआ है आत्मामें चित्त जिनका ऐसे हैं । तथा इन्द्रियोंके विषयोंकी गहनता में लीन हैं । मनके शल्यको दूर नहीं किया है तथा अध्यात्मका निश्चय नहीं किये हैं . और अपने भावों में दुर्लेश्याको दूर नहीं किये हैं । ऐसे पुरुष ध्यानसाधनमें निषेचित हैं । क्योंकि इनमें ध्यानकी योग्यता नहीं है ! ४६-४७ ॥
नर्मकौतुक कौटिल्यपापसूत्रोपदेशकाः । अज्ञानज्वरशीर्णाङ्गा मोहनिद्रास्त चेतनाः ॥ ४८ ॥ अनुद्युक्तास्तपः कर्तुं विषयग्रासलालसाः । ससङ्गाः शङ्किता भीता मन्येऽमी दैववञ्चिताः ॥ ४९ ॥ एते तृणीकृतखार्था मुक्तिश्रीसङ्ग निःस्पृहाः । प्रभवन्ति न सद्ध्यानमन्वेषितुमपि क्षणं ॥ ५० ॥
अर्थ – जो हास्य, कौतूहल, कुटिलता, तथा हिंसादि पाप प्रवृत्तिके शास्त्रोंका उपदेश करनेवाले हैं, तथा मिथ्यात्वरूपी ज्वर रोगसे जिनकी आत्मा शीर्ण ( रोगी ) है विकाररूप है । और मोहरूप निद्रासे जिनकी चेतना नष्ट हो गई है । जो तप करनेको उद्यमी नहीं हैं । विषयोंकी जिनके अतिशय लालसा है । जो परिग्रह और शंकासहित हैं । वस्तुका निर्णय जिनको नहीं है । तथा जो भयभीत हैं। मैं ऐसा मानता हूं कि, ऐसे पुरुष दैवके द्वारा ठगे गये हैं । फिर ऐसे पुरुषोंसे ध्यान कैसे हो सकता है ? इन पुरुषोंने अपने हितको तृणके समान समझलिया है तथा मुक्तिरूपी स्त्रीके संगम करनेमें निस्पृह हो गये हैं । इस कारण ये समीचीन ध्यानके अन्वेषण करनेको क्षणमात्रभी समर्थ नहीं हो सकते हैं । भावार्थ - जिनके खोटी भावना लगी रहती हैं और जिनके अपने हिताहितका विचार नहीं होता, वे समीचीन ध्यानका अन्वेषण नहीं कर सकते ॥ ४८-४९-५० ॥
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पापाभिचारकर्माणि सातर्द्धिर सलम्पटैः । यैः क्रियन्तेऽधमै महादा हतं तैः खजीवितं ॥ ५१ ॥ -