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ज्ञानार्णवः ।
इत्यादिपरमोदारपुण्याचरणलक्षिताः ।
ध्यानसिद्धेः समाख्याताः पात्रं मुनिमहेश्वराः ॥ १७ ॥ अर्थ — इत्यादिक परम-उदार - पवित्र आचरणोंसे चिह्नित, मुनियोंमें प्रधान, मुनीश्वर ध्यानकी सिद्धिके पात्र कहे गये हैं ॥ १७ ॥
तवारोढुं प्रवृत्तस्य मुक्तेर्भबनमुन्नतम् । सोपानराजिकाऽमीषां पादच्छाया भविष्यति ॥ १८ ॥
अर्थ - आचार्य महाराज कहते हैं कि, हे आत्मन् ! मुक्तिरूपी मंदिरपर चढ़नेकी प्रवृत्ति करते हुए तुझे पूर्वोक्त प्रकारके मुनियोंके चरणोंकी छायाही सोपानकी पंक्तिसमान होवेगी । भावार्थ - जिनको ध्यानकी सिद्धि करनी हो, उन्हें ऐसे मुनियोंकी सेवा करनी 1 चाहिये ॥ १८ ॥
ध्यानसिद्धिर्मता सूत्रे मुनीनामेव केवलम् ।
इत्याद्यमलविख्यातगुणलीलावलम्बिनाम् ॥ १९ ॥
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अर्थ — सूत्रमें (सिद्धान्तमें ) उपर्युक्त गुणोंको आदि लेकर निर्मल प्रसिद्ध गुणोंमें प्रवर्तनरूप क्रीड़ाके अवलम्वन करनेवाले केवल मुनियोंकेही ध्यानकी सिद्धि मानी है । अर्थात् मुक्तिके कारणखरूप ध्यानकी सिद्धि अन्यके नहीं हो सक्ती ॥ १९ ॥ शार्दूलविक्रीडितम् ।
निष्पन्दीकृतचित्तचण्डविहगाः पञ्चाक्षकक्षान्तकाः ध्यानध्वस्तसमस्तकल्मपविषा विद्याम्बुधेः पारगाः । लीलोन्मूलितकर्मकन्दनिचयाः कारुण्यपुण्याशया
योगीन्द्रा भवभीमदैत्यलनाः कुर्वन्तु ते निर्वृतिं ॥ २० ॥ अर्थ-पूर्वोक्त गुणोंके धारक योगीन्द्र गण हमारे तथा भव्य पुरुषोंके निर्वृति (सुख) रूप मोक्षको करो । कैसे हैं वे योगीन्द्र ? निश्चलरूप किया है चित्तरूपी प्रचंड पक्षी जिन्होंने, पंचेन्द्रियरूप वनके दूग्ध करनेवाले हैं, ध्यानंसे समस्त पापोंके नाश करनेवाले हैं, विद्यारूप समुद्रके पारगामी हैं, क्रीडामात्रसे कर्मोंके मूलको उखाड़नेवाले हैं, करुणाभावरूप पुण्यसे पवित्र चित्तवाले हैं और संसाररूप भयानक दैत्यको चूर्ण करनेवाले हैं ॥ २० ॥
विन्ध्याद्रिर्नगरं गुहा वसतिकाः शय्या शिला पार्वती
दीपाचन्द्रकरा मृगाः सहचरा मैत्री कुलीनाङ्गना । विज्ञानं सलिलं तपः सदशनं येषां प्रशान्तात्मनां धन्यास्ते भवपङ्कनिर्गमपथप्रो देशकाः सन्तु नः ॥ २१ ॥