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ज्ञानार्णवः । अर्थ-जो सातावेदनीयजनित सुख और अणिमा महिमादि तथा धनादिक ऋद्धि तथा रसीले भोजनादिकमें लंपट हैं । मोहसे पापाभिचार कर्म करते हैं । उनके लिये आचार्य महाराज खेदसहित कहते हैं कि, हाय ! हाय ! इन्होंने अपने जीवनका नाश किया और अपनेको संसारसमुद्रमें डुवा दिया ॥ ५१॥ वे पापाभिचार कर्म कौन २ हैं, सो कहते हैं,
वश्याकर्षणविदेपं मारणोचाटनं तथा। जलानलविपस्तम्भो रसकर्म रसायनम् ॥५२॥. पुरक्षोभेन्द्रजालं च वलस्तम्भो जयाजयो । विद्याच्छेदस्तथा वेधं ज्योतिर्ज्ञानं चिकित्सितम् ॥५३॥ यक्षिणीमन्नपातालसिद्धयः कालवञ्चना। पादुकासननिस्त्रिंशभूतभोगीन्द्रसाधनं ॥ ५४॥ इत्यादिविक्रियाकर्मरक्षितैर्दुष्टचेष्टितैः।
आत्मानमपि न ज्ञातं नष्टं लोकव्यच्युतैः ॥ ५५॥ अर्थ-वशीकरण, आकर्षण, विद्वेषण, मारण, उच्चाटन, तथा जल अग्नि विषका स्तंभन, रसकर्म, रसायन ॥ ५२ ॥ नगरमें क्षोभ उत्पन्न करना, इन्द्रजालसाधन, सेनाका स्तंभन करना, जीतहारका विधान बताना, विद्याके छेदनेका विधान साधना, वेधनां, ज्योतिषका ज्ञान, वैद्यकविद्यासाधन ॥ ५३ ॥ यक्षिणीमंत्र, पातालसिद्धिके विधानका अभ्यास करना, कालवंचना (मृत्यु जीतनेका मंत्र साधना), पादुकासाधन (खड़ाऊ पहनकर आकाश वा जलमें विहार करनेकी विद्याका साधन) करना, अदृश्य होने तथा गड़े हुए धन देखनेके अञ्जनका साधना, शस्त्रादिकका साधना, भूतसाधन, सर्पसाधन ॥ ५४ ॥ इत्यादि विक्रियारूप कार्योमें अनुरक्त होकर दुष्ट चेष्टा करनेवाले जो हैं उन्होंने आत्मज्ञानसे भी हाथ धोया और अपने दोनों लोकका कार्यभी नष्ट किया । ऐसे पुरुपोंके ध्यानकी सिद्धि होनी कठिन है ॥ ५५ ॥
यतित्वं जीवनोपायं कुर्वन्तः किं न लजिताः । मातुः पण्यमिवालम्ब्य यथा केचिद्गतघृणाः ॥५६॥ निस्नपाः कर्म कुर्वन्ति यतित्वेऽप्यतिनिन्दितम् ।
ततो विराध्य सन्मार्ग विशन्ति नरकोरे ॥ ५७ ॥ अर्थ-कई निर्दय, निर्लज्ज साधुपनमें भी अतिशय निंदा करनेयोग्य कार्य करते है । वे समीचीन हितरूप मार्गका विरोध कर नरकमें प्रवेश करते हैं । जैसे कोई अपनी माताको वेश्या बनाकर उससे धनोपार्जन करते हैं, तैसेही जो मुनि होकर उस मुनि
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