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ज्ञानार्णवः । अथ संक्षेपतः ध्यानखरूपः ।
आगे संक्षेपतः ध्यानका प्रकरण प्रारंभ किया जाता है, जिसमें प्रथम ध्यानके उद्यम · करनेकी प्रेरणा करते हैं,
अस्मिन्ननादिसंसारे दुरन्ते सारवर्जिते ।
नरत्वमेव दुःप्राप्यं गुणोपेतं शरीरिभिः ॥१॥ अर्थ-दुरन्त तथा सारवर्जित इस अनादिसंसारमें गुणसहित मनुष्यपन ही जीवोंको दुष्प्राप्य है अर्थात् दुर्लभ है ॥ १॥
काकतालीयकन्यायेनोपलब्धं यदि त्वया ।
तत्तर्हि सफलं कार्य कृत्वात्मन्यात्मनिश्चयम् ॥२॥ अर्थ-हे आत्मन् ! जो तूने यह मनुष्यपना काकतालीय न्यायसे पाया है, तो तुझे अपनेहीमें अपनेको निश्चय करके अपना कर्तव्य सफल करना चाहिये । इस मनुष्य जन्मके सिवाय अन्य किसी जन्ममें अपने स्वरूपका निश्चय नहीं होता, इस कारण यह उपदेश है ॥ २ ॥
जन्मनः फलं कैश्चित्पुरुषार्थः प्रकीर्तितः ॥ धर्मादिकप्रभेदेन स पुनः स्थाचतुर्विधः ॥ ३ ॥ अर्थ-अनेक विद्वानोंने इस मनुष्यजन्मका फल पुरुषार्थ करना ही कहा है । और वह पुरुषार्थ धर्मादिक भेदसे चार प्रकारका है ॥ ३ ॥
धर्मश्चार्थश्च कामश्च मोक्षश्चेति महर्षिभिः ।
पुरुषार्थोऽयमुद्दिष्टश्चतुर्भेदः पुरातनैः ॥ ४ ॥ अर्थ-प्राचीन महर्पियोंने धर्म १, अर्थ २, काम ३ और मोक्ष ४ यह चार प्रकारका पुरुषार्थ कहा है ॥ ४ ॥ अब इनमें विशेषता कहते हैं,
त्रिवर्ग तत्र सापायं जन्मजातकदूषितम् ।
ज्ञात्वा तत्त्वविदः साक्षाद्यतन्ते मोक्षसाधने ॥ ५॥ अर्थ-इन चारों पुरुषार्थों से पहिलेके तीन पुरुषार्थ नाशसहित और संसारके रोगोंसे दूपित हैं, ऐसा जानकर तत्त्वोंके जाननेवाले ज्ञानी पुरुष अन्तके परमपुरुषार्थ अर्थात् मोक्षके साधन करने में ही यत्न करते हैं, क्योंकि मोक्ष नाशरहित अविनाशी है ॥ ५॥